बिहार विधानसभा चुनाव के सभी 243 सीटों के नतीजे आ गए। मतों के गिनती का दिन 10 नवंबर काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा। सियासत के खेल में उत्सुकता अंत तक बनी रही। लेकिन अब परिदृश्य पूरी तरह साफ हो चुका है। एनडीए ने 125 सीटें हासिल कर बहुमत प्राप्त करने में सफलता पाई है। इसमें बीजेपी सबसे ज्यादा 74 सीटें हासिल की हैं, जबकि नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड को 43 सीटें ही मिल पाई हैं। इसके आलावा एनडीए के छोटे दलों ने भी अच्छा प्रदर्शन किया है और इनकी वजह से एनडीए को मजबूती मिली है। सन ऑफ मल्लाह मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी( वीआईपी) ने 4 और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की( हम) ने भी 4 प्राप्त की है। इन दोनों की आठ सीटों पर जीत से एडीए को संजीवनी मिली है।
चिराग बुझकर भी कर गया रोशनी
दरअस्ल इस चुनाव में एनडीए के वोटों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया, चिराग पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी ने। भले ही लोजपा बिहार चुनाव 2020 में कोई कमाल नहीं कर पाई, लेकिन उसने चुनावी नतीजों को खूब प्रभावित किया। लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान ने खुद को पीएम मोदी का हनुमान बताया था और भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों वाली सीटों पर अपने प्रत्याशी नहीं उतारने का ऐलान किया था। इस वजह से बीजेपी को कई सीटों पर जीत पाने में मदद मिली।
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अन्य फैक्टर्स
ऐसा नहीं है कि सिर्फ इसी फैक्टर ने बिहार में छोटे भाई को बड़ा भाई और बड़ा भाई को छोटा भाई बना दिया। इसके आलावा पीएम मोदी भी इस चुनाव में एक बड़ा फैक्टर साबित हुए। उन्होंने जहां खुद चुनाव प्रचार में अपनी पूरी ताकत लगा दी, वहीं उनके नाम पर जहां बीजेपी ने वोट मांगे, वहीं जेडीयू ने भी इस बार मोदी के काम पर वोट मांगे। इसका बीजेपी को काफी फायदा हुआ।
व्यवस्थित चुनाव प्रचार
पीएम मोदी के आलावा भी बीजेपी के दूसरे बड़े और स्थानीय नेताओं ने बहुत ही व्यवस्थित तरीके से चुनाव प्रचार किया। उनमें गृहमंत्री के साथ पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नाड्डा शामिल हैं। चुनाव आयोग द्वारा तारीखों के ऐलान किए जाने के बाद से ही इन्होंने चुनाव प्रचार शुरू कर दिया था। नाड्डा तो पूरे चुनाव के दौरान बिहार में अपना अड्डा जमाए रहे।
ये फैक्टर भी रहे महत्वपूर्ण
इसके आलावा बिहार में बीजेपी के कमल खिलने की एक वजह यह भी है कि सवर्णों का एकमुश्त मत उसे मिला। इसके साथ ही एनडीए में ऐन चुनाव के वक्त महादलित समाज और हम के नेता जीतनराम मांझी तथा अतिपिछड़ी जाति के मुकेश सहनी के भी आने का बीजेपी को फायदा मिला और इनके समाज के मतदाताओं के काफी वोट उसकी की झोली में आए।
बड़ा भाई कैसे बन गया छोटा भाई
जेडीयू सुप्रीमो नीतीश कुमार की बात करें, तो केंद्र में भले ही बीजेपी और मोदी बड़े भाई की भूमिका में रहे हों, इस चुनाव से पहले तक बिहार में नीतीश कुमार ही बड़े भाई हुआ करते थे लेकिन अब पासा पलट गया है। नीतीश कुमार बिहार में भी छोटे भाई की भूमिका में आ गए हैं। सीटों के बंटवारे से लेकर चुनाव परिणाम आने तक के काल में यह बात स्पष्ट रुप से दिखी। पहली बार जहां विधानसभा के 243 सीटों में से जेडीयू को 122 सीटों से संतोष करना पड़ा। इसके साथ ही चुनाव प्रचार के दौरान भी उन्हें बार-बार मोदी और मोदी सरकार का सहारा लेना पड़ा। उन्होंने अपने संबोधन में अपने साथ ही मोदी सरकार के कामों और सहयोग का खुलकर जिक्र किया।
चिराग पासवान ने पहुंचाया भारी नुकसान
इसके साथ ही जेडीयू का कद छोटा करने में चिराग पासवान की लोजपा ने अहम भूमिका निभाई। उन्होंने एनडीए से अलग होने का ठीकरा भी नीतीश कुमार पर फोड़ा और अपने वादे के मुताबिक नीतीश कुमार को नुकसान पहुंचाने का कोई मौका नहीं गंवाया। यहां तक कि उन्होंने जेडीयू के उम्मीदवारों वाली सीटों पर एक सोची-समझी रणनीति के तहत अपने उम्मीदवार उतारे और इसका जेडीयू को बड़ा नुकसान हुआ। एक अनुमान के तहत लोजपा की वजह से जेडीयू को कम से कम 20 सीटें गंवानी पड़ी और 2015 में 71 सीटों पर जीत हासिल करनेवाले जेडीयू को मात्र 43 सीटों पर संतोष करना पड़ा।
बिहार की जनता ने आदरणीय @narendramodi जी पर भरोसा जताया है।जो परिणाम आए हैं उससे यह साफ़ है की भाजपा के प्रति लोगो में उत्साह है।यह प्रधानमंत्री आदरणीय नरेंद्र मोदी जी की जीत है।
— युवा बिहारी चिराग पासवान (@iChiragPaswan) November 10, 2020
भविष्य के लिए रोडमैप का न होना
- एंटी इंकबेंसी फैक्टर के कारण भी जेडीयू को काफी नुकसान उठाना पड़ा।
- नीतीश कुमार के चुनाव प्रचार में बेहतर बिहार के लिए कोई रोडमैप का न होना भी जेडीयू के खिलाफ गया।
बुझ गया चिराग
लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान को इस चुनाव में कुछ भी हासिल नहीं हुआ। 143 सीटों पर चुनाव लड़कर मात्र एक सीट पर जीत हासिल होने के बावजूद उन्होंने पार्टी के प्रदर्शन पर खुशी जताई है तो यह उनकी मजबूरी ही है। एनडीए के साथ रहकर वे मुकेश सहनी और जीतनराम मांझी से बेहतर प्रदर्शन कर सकते थे। लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा की वजह से उन्हें इस परिस्थिति का सामना करना पड़ा। हालांकि चुनाव के ऐलान के पहले से ही उन्होंने तैयारी शुरू कर दी थी और आखिर तक दांव-पेच आजमाते रहे, लेकिन नतीजा बताता है कि उनका एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ना आत्मघाती शामिल हुआ। अब उन्हें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। 2015 में दो सीटों पर जीत हासिल करनेवाली लोजपा का मात्र एक सीट पर सिमट जाना चिराग पासवान के लिए बड़ा झटका है। इससे वे कैसे संहलते हैं, ये देखना बाकी है।