एंबुलेंस आई पर, तब तक काल ले उड़ा था पुणे के ‘पांडुरंग’ को!

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मुंबई। कोरोना का हाहाकार है, कई जिंदगियां इसने निगल ली हैं। अब भी बड़ी संख्या में लोग अस्पताल में इलाज करा रहे हैं। इनमें ऐसे भी हैं जो जिंदगी और महामारी की लड़ाई में झूल रहे हैं। उन्हें अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस स्वास्थ्य सेवाएं चाहिये। बड़ी संख्या में लोगों को ये सुविधाएं भागदौड़ से उपलब्ध हो जाती हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें काफी भागदौड़ के बाद भी उन्नत स्वस्थ्य सेवा नहीं मिल पाती और काल उनके प्राण हर ले जाता है। यही हुआ पुणे के पांडुरंग रायकर के साथ।
कोरोना की महामारी ने कई परिवारों के जीवन में बड़ा गड्ढा बना दिया है जो शायद ही कभी भरेगा। पत्रकारिता जगत में भी कई बड़े गड्ढे इस महामारी ने रच दिये हैं। इस महामारी ने कई होनहार पत्रकारों को निगल लिया है। हाल कि घटना पुणे की है जहां पांडुरंग रायकर नामक युवा पत्रकार इसकी भेंट चढ़ गए। पांडुरंग एक होनहार और युवा पत्रकार थे। उन्होंने पत्रकारिता में भले अच्छी कहानियां लिखनी शुरू कर दी थीं लेकिन उनकी अपनी जिंदगी की कहानी में अभी काफी कुछ प्रगति और खुशहाली के क्षण आने थे। अपनी निजी जिंदगी भूलकर समाज की इन्हीं कहानियों के लिए आपाधापी करते-करते पांडुरंग को अचानक 20 अगस्त को ठंड और ज्वर ने जकड़ लिया। उन्होंने पुणे के अपने डॉक्टर से दवाई ली 27 अगस्त को उनकी कोरोना जांच की गई जिसका परिणाम निगेटिव आया। इस जांच रिपोर्ट से अपने स्वास्थ्य के प्रति निश्चिंत होकर पांडुरंग रायकर अहमदनगर के अपने गांव चले गए। लेकिन वहां भी ज्वर ने साथ नहीं छोड़ा। चिंतित परिवार उन्हें डॉक्टर के पास ले गया जहां कोपरगाव में उनका एंटीजेन टेस्ट किया गया जिसकी रिपोर्ट पॉजिटिव आई। चिंतित परिजन उन्हें एंबुलेंस से 30 अगस्त की रात पुणे इलाज के लिए ले आए। यहां उनके पत्रकार साथियों और परिवार के द्वारा जंबो अस्पताल में भर्ती कराया गया। उपचार शुरू हुआ। लेकिन परिस्थिति बिगड़ती गई। उन्हें वेंटिलेटर की आवश्यकता थी। जो अस्पताल के पास नहीं था। परिवार और पत्रकार मित्रों ने अन्यत्र अस्पताल में वेंटिलेटर प्राप्त करने की कोशिश शुरू की। कुछ ही घंटों में उन्हें बेड मिल भी गया लेकिन वेंटिलेटर (कार्डिएक) सज्ज एंबुलेंस नहीं मिल पा रही थी। एक एंबुलेंस मिली भी तो उसकी मशीनरी में खराबी थी जबकि दूसरी में डॉक्टर उपलब्ध नहीं थे। आखिरकार सबेरे पांच बजे एंबुलेंस मिली और खबर मिली कि पांडुरंग रायकर को दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल लेकर निकलने वाले हैं। लेकिन विधि का विधान कुछ और ही था। एंबुलेंस तक पहुंचने के पहले ही पांडुरंग के प्राण काल ले उड़ा। परिवार उजड़ गया, मित्रों की कोशिश फेल हो गई और एक खिलता सुमन समय के पहले ही कोरोना ने छीन लिया।
रिश्तों को ही बदल दिया
अस्पताल परिसर में रोते-बिलखते परिवार के बीच स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा एक प्लास्टिक से ढंका शव लाया जाता है और दूर से परिवार उसे नम आंखों से देखता है और मन मसोस कर रह जाता है। कोरोना ने जीवन को ऐसा बदला है कि अब इसके छूते ही इंसान अछूत हो जाता है। उसके पास बगैर सुरक्षा (पीपीई किट) के जाना खतरा बन गया है। उसके अपने भी तभी मिल पाते हैं जब वो अस्पताल से ठीक होकर बाहर आता है। अन्यथा प्लास्टिक में लिपटा बेजान शरीर लाया जाता है और चंद मिनटों में उसे अंतिम क्रिया के लिए सौंप दिया जाता है। जिंदगी को चलाने के लिए परिवार असीम दुख को अपने हृदय में समेटे अपने आगे की जिंदगी की कड़ियों को जोड़ने में लग जाता है।
मानवता को भी मजबूर कर दिया
ठाणे के स्मशान गृह में एक एंबुलेंस आई। पीपीई किट पहने चार-पांच स्वास्थ्य कर्मी उतरे और पीछे रखे एक शव को गाड़ी से बाहर निकाला। इस बीच बहुत दूर खड़ा परिवार ये सब देख रहा था। दिवंगत शख्स नगरसेवक और व्यवसाई थे। उनकी पत्नी भी नगरसेविका है। इस बीच स्ट्रेचर पर रखे शव को स्मशान के अंतिम क्रिया स्थल पर बगैर हाथ लगाए ही रख दिया गया। इसे देखकर परिवार फूट-फूटकर रो पड़ा। आखिर जिसने उन्हें पाला, जिसने उनके सपनों को पूरा करने में अपना जीवन अर्पण कर दिया था उसकी अंतिम क्रिया में परिवार के उसके अपने कंधा भी न दे पाए। यह घटना तो एक उदाहरण मात्र है कोरोना ने जितने भी प्राण लिये हैं सबकी स्थिति लगभग यही है। न किसी को अंतिम यात्रा मिली, न किसी को कंधा बस, रह गया उनके जाने के बाद एक रोता-बिलखता परिवार और परिजन।
जहां अपने भी छूटे वहां मुस्तैद रहे वे…
महामारी के संक्रमण को रोकने के लिए संक्रमित व्यक्ति को संपर्क से अलग करना पहला कदम है। इसके बाद इलाज की बारी आती है। इलाज के दौरान भी स्वास्थ्य कर्मी संक्रमण से बचने के लिए पीपीई किट पहने घंटों रहते हैं। इस दौरान कई बार पानी पीने और शौच के लिए जाने के लिए भी ये कर्मी बारह-बारह घंटे इंतजार करते हैं। ये अपने मरीजों की सेवा करते-करते भागदौड़ में रह जाते हैं। मास्क उनके चेहरों को बिगाड़ देता है। लेकिन सेवा का मरहम उनके अपने दर्द को दबा देता है। महामारी ने जब अपनों को भी छीन लिया तो एक नया रिश्ता भी जुड़ गया वो है इन देवतुल्य स्वास्थ्य कर्मियों के साथ। जो अपनी भूख, आवश्यकता, परिवार को छोड़कर समर्पित हो गए संक्रमितों की सेवा में। इसकी भारी कीमत भी कई स्वास्थ्य कर्मियों ने अपने प्राणों के रूप में चुकाई। हाल की घटना चंद्रपुर की है जहां सुनील टेकाम नामक 32 वर्षीय डॉक्टर कोरोनाग्रस्तों की सेवा में संक्रमित हो गए थे। इसका पता चलते ही उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। लेकिन दूसरों का दर्द दूर करनेवाला अपने दर्द से न जीत सका। कोरोना उनकी सेवा, उनकी निष्ठा को दरकिनार कर उन्हें जग से छीन लिया।

 

 

 

 

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