ये हैं 71 के ‘परमवीर’!

1971 का युद्ध भारत के लिए अपनी संप्रभुता को सदा के सुरक्षित करने का अवसर था। इस युद्ध को जीतकर भारत ने बांग्लादेश के गठन का मार्ग खोल दिया। इसमें भारतीय सैनिकों की वीरता ने दुश्मन के हौसले को ऐसा पस्त किया कि उसकी पूरी सेना ने घुटनों के बल आत्मसमर्पण कर दिया।

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1971 के युद्ध को 50 वर्ष हो गए हैं। इस युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को ऐसा हराया कि उसके 93 हजार सैनिकों ने घुटने टेक दिये। इसके पीछे भारतीय सेना का अदम्य साहस, शौर्य, दृढ़ इच्छाशक्ति थी। इस युद्ध में वतन के कुछ ऐसे मतवाले थे जिनके बगैर इस विजय की कल्पना नहीं की जा सकती। इन्हें देश ने सर्वोच्च शौर्य पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया।

अल्बर्ट एक्का

अल्बर्ट एक्का 1962 में भारतीय सेना से जुड़े थे। वे बिहार रेजिमेंट में कार्यरत थे बाद में 14 गार्ड्स में स्थानांतरण हो गया। अनुशासन, दृढ़ता को देखते हुए उन्हें लांस नायक का पद दिया गया। 1971 के युद्ध में उन्हें पूर्वी पाकिस्तान भेजा गया था। अल्बर्ट एक्क को वहां गंगासागर पर अपना कब्जा जमाना था। गंगासागर त्रिपुरा की राजधानी अगरतला से मात्र 6.5 किलोमीटर दूर है। 3 दिसंबर को गंगासागर रेलवे स्टेशन पर लड़ाई शुरू हुई। इसके लिए भारतीय सेना की कंपनी आगे बढ़ रही थी जिसमें से एक की कमान अल्बर्ट एक्का के हाथ थी। रेलवे स्टेशन पर माइंस बिछी हुई थीं और पाकिस्तानी सेना मशीन गन से फायर कर रही थी। इसके कारण भारतीय सेना को काफी नुकसान हो रहा था। यह देखकर एक्का ने अकेले ही पाकिस्तानियों पर हमला बोल दिया और दो पाकिस्तानियों को मौत के घाट उतार दिया। इसमें मां भारती के इस सपूत को भी चोटें आई थीं। लेकिन अल्बर्ट एक्का हिम्मते नहीं हारे वे आगे अपनी कंपनी के साथ आगे बढ़ते रहे। कुछ ही आगे बढ़े थे कि पाकिस्तान की तरफ से फिर फायरिंग शुरू हो गई। ये फायरिंग एक दो मंजिला इमारत से हो रही थी। यहां अल्बर्ट एक्का ने वीरता का परिचय देते हुए बम से हमला कर दिया। उनके इस हमले में पाकिस्तानी सेना के सैनिक ढेर हो गए और फायरिंग थम गई। इस दौरान अल्बर्ट एक्का गंभीर रूप से घायल हो गए थे और वे वीरगति को प्राप्त हो गए। उनकी इस वीरता के चलते पाकिस्तानी सेना अगरतला में प्रवेश नहीं कर पाई। भारत माता के इस वीर सपूत को अदम्य साहस और वीरता के लिए परवीर चक्र (मरणोपरान्त) से सम्मानित किया गया।

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निर्मलजीत सिंह सेखों 

14 दिसंबर 1971 को निर्मलजीत सिंह सेखों श्रीनगर में तैनात थे। इस दौरान वहां पाकिस्तानी वायुसेना के छह एफ-86 सबर जेट विमानों ने हवाई हमला कर दिया। अपनी टुकड़ी की कमान संभालते हुए फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों 18 नेट स्क्वॉड्रन के साथ तैनात थे। उन्हें सबेरे 8 बजकर 2 मिनट पर दुश्मन के हमले की अग्रिम सूचना मिली थी। निर्मलजीत सिंह के साथ फ्लाइट लेफ्टिनेंट घुम्मन और कमर कस भी मौजूद थे। दुश्मन के छह विमान सिर पर मंडरा रहे थे। इससे निडर सेखों ने तुरंत उड़ान भरी और दुश्मन के दो जंगी विमानों को उलझा लिया। उन्होंने दुश्मन के दोनों विमानों में से एक को हिट किया जबकि दूसरे को आग में झोंक दिया। इस समय तक पाकिस्तान के दूसरे विमान भी मदद में आ गए और सेखों 4 जंगी विमानों में अकेले पड़ गए। दुश्मन की शक्ति से निडर, शौर्यता का परिचय देते हुए सेखों ने अदम्य साहस का परिचय दिया। इस भीषण युद्ध में उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और वे वीरगति को प्राप्त हो गए। उनकी इस वीरता के सम्मान में देश ने उन्हें परमवीर चक्र (मरणोपरान्त) से सम्मानित किया।

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अरुण खेतरपाल

ब्रिगेडियर पिता के शूरवीर पुत्र थे सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेतरपाल। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि सेना से ही थी। 1971 के युद्ध में अरुण खेतरपाल के 17 पूना हॉर्स को 47 इन्फैंन्ट्री की जिम्मेदारी दी गई थी। यह डिवीजन शकरगढ़ सेक्टर के बसंतर में दुश्मनों का मुकाबला कर रही थी। 15 दिसंबर को इस ब्रिगेड ने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया था। लेकिन वहां माइंस बिछी हुई थीं। इंजीनियर्स इन माइंस को हटा रहे थे इस बीच दुश्मन की ओर से हमले के लिए बड़ी तैयारी देखने को मिली। जिसके बाद 17 पूना हॉर्स ने माइंस के बीच से ही आगे बढ़ने का निर्णय किया।
इस बीच दुश्मन ने तीव्र हमला कर दिया। इस हमले में सेकंड टैंक कमांडर अहलावत घायल हो गए तो अरुण खेतरपाल ने कमान संभाल ली। उन्होंने पाकिस्तान के दस टैंको को ध्वस्त कर दिया। इस बीच उनके टैंक पर भी हमला हुआ। लेकिन उन्होंने उसे खाली नहीं किया। रेडियो संदेश में उनके अंतिम वाक्य थे, नहीं सर मैं अपना टैंक नहीं छोड़ूंगा। मेरी मुख्य गन अभी चल रही है। मैं इन्हें खत्म कर दूंगा।
फायरिंग के दौरान अरुण खेतरपाल ने पाकिस्तान के अंतिम टैंक को जब ध्वस्त किया तो वो उनसे मात्र 100 मीटर की दूरी पर था। इस बीच एक और हमला दुश्मन की ओर से अरुण खेतरपाल पर हुआ जिसमें वे वीरगति को प्राप्त हो गए। उनकी इस वीरता और अदम्य साहस के लिए उन्हें परमवीर चक्र (मरणोपरान्त) से सम्मानित किया गया। अरुण खेतरपाल परमवीर चक्र से सम्मानित होनेवाले सबसे कम उम्र के अधिकारी थे।

कर्नल होशियार सिंह

1963 में कर्नल होशियार सिंह को थर्ड ग्रेनेडियर रेजिमेंट में तैनाती मिली। यह रेजिमेंट नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (एनईएफए) पर तैनात थी। होशियार सिंह 1965 का युद्ध भी लड़ चुके थे। 1971 की लड़ाई में ग्रेनेडियर्स रेजिमेंट शकरगढ़ क्षेत्र में तैनात थी। कर्नल होशियार सिंह (उस समय मेजर) के रेजिमेंट को बसंतर नदी पर पुल बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। यह कार्य बहुत मुश्किल था क्योंकि नदी के अंदर माइंस बिछी हुई थीं। 16 दिसंबर का दिन था जब नदी में पुल निर्माण कार्य के बीच दुश्मन की ओर से भारी हमला जारी थी। दुश्मन के टैंक गोले उगल रहे थे, मशीन गन से जोरदार फायरिंग हो रही थी। इन सबका मुकाबला करते हुए होशियार सिंह खुद भी घायल हो गए थे। लेकिन अपने जवानों का हौसला बढ़ा रहे थे। इससे दुश्मन को भारी नुकसान उठाना पड़ा था। 17 दिसंबर1971 को अचानक फिर दुश्मन ने हमला कर दिया। भारी आर्टिलरी फायरिंग दुश्मन की तरफ से की जा रही थी। होशियार सिंह गंभीर रूप से घायल हो चुके थे। लेकिन दुश्मन पर जवाबी कार्रवाई जारी थी। आखिरकार दुश्मन 85 जवानों और तीन कमांडिंग अधिकारियों के शव छोड़कर भाग खड़ा हुआ। अदम्य साहस और वीरता के लिए कर्नल होशियार सिंह को देश के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

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