क्या ये सियासी ‘शरद’ ऋतु है!

राज्य में एक के बाद एक घटनाएं हो रही हैं। सुशांतसिंह राजपूत मामला, दिशा सालियन प्रकरण, मेट्रो कारशेड स्थानांतरण, पत्रकार गिरफ्तारी का मामला, मराठा आरक्षण पर सरकार का स्टैंड, ये सब वो मामले हैं जिन्हें लेकर सरकार की कहीं न कहीं किरकिरी हो रही है। सत्ता में भले ही शिवसेना के साथ एनसीपी और कांग्रेस हों लेकिन बदनामी का ठीकरा मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के सिर ही फूट रहा है।

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महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस सत्ता में है। शिवसेनाप्रमुख बालासाहेब ठाकरे की विरासत उद्धव ठाकरे संभाल रहे हैं और वो ठाकरे परिवार से पहले मुख्यमंत्री हैं। तो एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार के भतीजे अजीत पवार उप-मुख्यमंत्री हैं जबकि सरकार का तीसरा धड़ा कांग्रेस है जो गांधी परिवार की धुरी पर घूमता रहा है। लेकिन इस बीच राज्य में हो रही घटनाएं सियासत में ‘शरद’ ऋतु के आगमन की ओर ध्यान खींच रही हैं। जिसमें एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार की पुत्री को राज्य की राजनीति के शीर्ष पर आसीन करने के लिए उचित माहौल बनाने की कोशिशें हो रही हैं।

राज्य में एक के बाद एक घटनाएं हो रही हैं। सुशांतसिंह राजपूत मामला, दिशा सालियन प्रकरण, मेट्रो कारशेड स्थानांतरण, पत्रकार गिरफ्तारी का मामला, मराठा आरक्षण पर सरकार का स्टैंड, ये सब वो मामले हैं जिन्हें लेकर सरकार की कहीं न कहीं किरकिरी हो रही है। सत्ता में भले ही शिवसेना के साथ एनसीपी और कांग्रेस हों लेकिन बदनामी का ठीकरा मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के सिर ही फूट रहा है। दूसरी तरफ थोड़ा पीछे घटे मेल मिलापों की तरफ जाएं तो स्थिति स्पष्ट होगी। शरद पवार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भेंट की थी। सूत्रों के अनुसार उस बैठक में शरद पवार की तरफ से बेटी सुप्रिया सुले को केंद्रीय मंत्री पद देने की मांग रखी गई थी। लेकिन बीजेपी राज्यमंत्री पद देने के लिए ही तैयार हुई, जिसके कारण बात वहीं थम गई क्योंकि, शरद पवार को सुप्रिया के लिए केंद्र में कैबिनेट मंत्री पद चाहिए था। ऐसे में अब बची राज्य की सत्ता, तो क्या अब राज्य में स्थिति को उस स्तर पर लाने की कोशिश हो रही है कि सत्ता का हस्तांतरण शरद पवार के मनानुसार हो जाए, जिसमें मुख्यमंत्री उनकी पुत्री सुप्रिया सुले बनें!

इन चर्चाओं और संभावनाओं के बीच पवार के घर में अजीत पवार की कोशिशें नित नए रंग में दिखती रही हैं। रात में शपथ लेना हो या पार्थ पवार की सियासी पत्रबाजी और सोशल मीडियाबाजी। इन सबको पवार सीधे या परोक्ष तरीके से अस्वीकार करते रहे हैं। शरद पवार की उम्र धीरे-धीरे उस ओर है जहां उन्हें अपनी विरासत किसी को सौंपनी होगी। राजनीति में ये देखा गया है कि नेता जब अपनी अगली पीढ़ी में सत्ता का हस्तांतरण कर अपनी पकड़ मजबूत रहते करते हैं तो विवादों का कोई खास असर नहीं पड़ता। लेकिन, यही जब नेताओं के निधन या अचानक निस्क्रिय होने के बाद होता है तो इसका दूरगामी परिणाम उस पार्टी पर पड़ता है। एनसीपी के बारे में देखा जाए तो ये बातें एक बार सच लग सकती हैं क्योंकि अजीत पवार पावरफुल हैं और सुप्रिया का नेतृत्व स्वीकार करेंगे, इसको लेकर संशय ही है। बहरहाल, लाख विरोधों के बावजूद नेता अपनी विरासत अपनी संतानों या हमदम को ही सौंपते रहे हैं। पेश हैं वो घटनाएं, जो इतिहास दोहराए जाने की पुष्टि करती हैं।

पुत्रमोह में रिश्ता छूटा

शिवसेनाप्रमुख बालासाहेब ठाकरे की विरासत किसे जाएगी, इसे लेकर लंबा कयास लगता रहा। ‘एकवचनी’ में बालासाहेब के साक्षात्कारों के अनुसार देखें तो राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे दोनों ने शिवसेना में शिवसैनिक के रूप में एक साथ कार्य शुरू किया। उद्धव ठाकरे ने पार्टी का प्रबंधन बड़ी ही शालीनता से संभाला तो राज ठाकरे ने राज्य भर में पार्टी के प्रसार का कार्य किया। राज ठाकरे की वाणी में लोगों को बालासाहेब की छवि दिखती थी। लेकिन धीरे-धीरे बालासाहेब के ये दो शिष्य बड़े हो रहे थे। जहां शुरू हुई शिवसेना के कर्णधार बनने
की दौड़। इसमें कौन शिवसेना का नेतृत्व करे और कौन उसके पीछे नंबर दो पर रहे, यह निर्णय समय को चाहिए था। इसमें शिवसेना प्रमुख ने अपने रहते ही उद्धव ठाकरे को अपना राजपाट सौंप दिया। ये कोई एक दिन में नहीं हुआ। इसके पीछे ठाकरे परिवार में मनमुटाव, राज ठाकरे की नाराजगी, राजनीतिक वनवास में चले जाना आदि-आदि घटनाएं घटती रहीं। लेकिन पुत्र मोह के आगे भतीजे का रिश्ता बौना साबित हुआ।

अखिलेश को सौंपा राजपाट, सपा में फूट

2017 के विधान सभा चुनावों के पहले मुलायम सिंह यादव के परिवार में घमासान मचा हुआ था। मन से मुलायम सिंह यादव पुत्र के साथ थे तो भाई के लिए भी दर्द था। बेटे ने पार्टी में नेताओं का जनाधार अपने पक्ष में कर लिया था। इस सियासी ड्रामें में साइकिल किसकी यह विवाद भी खूब रंगा। आखिरकार नेताजी ने पुत्र आखिलेश को सपा की कमान सौंप दी। जो भाई शिवपाल को रास नहीं आई। हालांकि, दोनों पक्षों में सुलह की कई कोशिशें हुईं लेकिन सफल नहीं हुईं। आखिरकार शिवपाल सिंह यादव ने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का गठन कर लिया और सपा टूट गई।

चंद्राबाबू ने भतीजे के बदले बेटे का किया समर्थन

बात 2011 की है, जब तेलुगू देशम पार्टी के संस्थापक एन.टी.रामाराव के पुत्र नंदमूरी हरिकृष्णा और उनके दामाद व पार्टी अध्यक्ष चंद्र बाबू नायडू के बीच उत्तराधिकार को लेकर टकराहट हो गई। एक कार्यक्रम रखा गया था, एनटी रामाराव को श्रद्धांजलि देने का। जिसमें चंद्रबाबू नायडू ने अपने बेटे लोकेश नायडू को उत्तराधिकारी के रूप में बढ़ावा देने का प्रयास किया तो एनटी रामाराव के बड़े बेटे नंदमूरी हरिकृष्णा ने इसका जमकर विरोध किया। टीडीपी पोलित ब्यूरो के सदस्य हरिकृष्णा चाहते थे कि उनके बेटे जूनियर एनटीआर पार्टी की कमान संभालें। लेकिन तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के अध्यक्ष चंद्र बाबू नायडू को ये स्वीकार नहीं था। जिसके बाद एनटीआर परिवार में विद्रोह एक बार फिर फूट पड़ा।

इसके थोड़ा पीछे दृष्टि डालें तो चंद्राबाबू नायडू के ससुर और टीडीपी के संस्थापक नंदमूरि तारक रामा राव 70 साल के थे, जब उनसे 38 साल की लक्ष्मी पार्वती ने विवाह किया था। यह बात उनके 7 बेटों और 3 बेटियों को पसंद नहीं आई। जब एनटीआर को लकवा मार गया तो वे अपनी पत्नी पर निर्भर हो गए। ऐसे में पारंपरिक सीट ‘तेकाली’ खाली हो गई थी, जिस पर लक्ष्मी चुनाव लड़ना चहती थीं और रामाराव के बेटे हरिकृष्ण ने भी उस सीट पर अपना दावा ठोंक दिया। बस यहीं से परिवार का विवाद जगजाहिर होने लगा। आखिरकार एनटीआर ने तीसरे को खड़ा करके विवाद को उस समय के लिए विराम दे दिया। लेकिन जैसे-जैसे लक्ष्मी का पार्टी में दखल देना शुरू हुआ, उनको ‘अम्मा’ कहने वाले पार्टी के विधायक और सांसद भी उनके ही खिलाफ खड़े हो गए। जहां एक ओर रामा राव हमेशा अपनी पत्नी लक्ष्मी पार्वती के साथ खड़े रहते थे, वहीं उनके बेटे, बेटी और दामाद ने बगावत कर दी। इस बगावत की अगुआई की थी चंद्रबाबू नायडू ने, जो उस दौरान रामा राव सरकार में मंत्री थे। जिस एनटी रामाराव ने टीडीपी को खड़ा किया था, चंद्रबाबू नायडू ने न सिर्फ उन्हें सरकार के प्रमुख के तौर पर बेदखल कर दिया, बल्कि पार्टी से भी निकाल दिया। आखिरकार एनटी रामा राव ने अपने परिवार से सार्वजनिक रूप से सारे संबंध तोड़ लिए और चंद्रबाबू नायडू को ‘पीठ में छुरा घोंपने वाला धोखेबाज’ और ‘औरंगजेब’ कहने लगे।

प्रभुत्व की लड़ाई में कम पड़ी करुणा’निधि’

एम.जी रामचंद्रन 1953 तक कांग्रेस में रहे और करुणानिधि की मदद से 1953 में ही द्रविड मुनेत्रा कझगम से जुड़े। अभिनेता और नेता की छवि राज्य में सफलता की सीढ़ी पर दिनोंदिन चढ़ रही थी। इस बीच एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) का रुतबा पार्टी में तेजी से बढ़ रहा था। जिससे करुणानिधि को दिक्कत लगने लगी। डीएमके के संस्थापक अण्णा दुराई के निधन के बाद करुणानिधि और एमजीआर में कड़वाहट खुलकर सामने आ गई। इस कड़वाहट के बीच 1972 में करुणानिधि ने अपने पुत्र एमके मुथु को राजनीति में आगे करना शुरू किया तो दूसरी तरफ एमजी रामचंद्रन ने अपनी सह-अभिनेत्री जयललिता को आगे किया। इसने रिश्ते को बिगाड़ दिया और एम.करुणानिधि ने एमजीआर को पार्टी से निकाल दिया।

एम करुणानिधि का पुत्र मोह इतने में ही नहीं थमा। अपने अंतिम दिनों में करुणानिधि ने अपनी राजनीतिक कमान अपने तीसरे बेटे एम.के स्टालिन को सौंप दी थी। इसका विरोध और कोई नहीं बल्कि करुणानिधि के बड़े बेटे एमके अलागिरी ने किया और परिवार में मतभेद खुलकर सामने आ गए। जिसकी परिणति अलागिरी को पार्टी से हटाए जाने के रूप में हुई।

पति, पत्नी और वो में एआईएडीएमके

1972 में एमजीआर ने एआइएडीएमके का गठन किया। पार्टी को तमिलनाडु में अच्छा समर्थन मिला और एमजीआर 1977 से लेकर 1987 तक मुख्यमंत्री रहे। इस बीच एमजीआर की पत्नी पार्टी में जयललिता के बढ़ते कद से परेशान थीं। जिसकी परिणति रही कि 1985 में एमजीआर की पत्नी जानकी ने एमजीआर के करीबी थिरुनवुकारासु की सहायता से जयललिता को पार्टी से निकाल दिया। एआइएडीएमके दो धड़ों में बंट गई। जयललिता के धड़े ने एमजीआर के बाद पार्टी को पूरी तरह से अपने हाथ में ले लिया।

इतिहास के इन पन्नों से एक बात तो साफ है कि शिवसेनाप्रमुख बालासाहेब ठाकरे, मुलायम सिंह यादव या एम.करुणानिधि ने अपनी राजनीतिक सक्रियता में ही सत्ता की कमान अपनी अगली पीढ़ी को सौंप दी। जिसका परिवार में विरोध होने के बावजूद जनाधार पर असर नहीं पड़ा। लेकिन, एनटी रामाराव ने अपनी शारीरिक अक्षमता में जब कोशिश की तो उन्हें ही पार्टी से निकाल दिया गया। ऐसे में एनसीपी में यदि सत्ता हस्तांतरण होता है तो क्या स्थिति होगी, ये इस बात पर निर्भर होगा कि क्या शरद पवार अब भी उतने पावरफुल हैं?

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