जानिए… म्यांमार में हाउस अरेस्ट आंग आन सू की पूरी कहानी!

पार्टी की सर्वोच्च नेता आंग सान सू की का नाम मानवाधिकारों की समर्थक के रुप में लिया जाता था। इसके लिए उन्हें 1991 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

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भारत के पड़ोसी देश म्यांमार में तख्तापलट हो गया है। यहां देश की सर्वोच्च नेता आंग आन सू के साथ ही राष्ट्रपति और पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को नजरबंद कर सेना ने सत्ता पर कब्जा जमा लिया है। सेना ने एक साल के लिए सत्ता को अपने कंट्रोल में लिया है। नवंबर 2020 में हुए चुनाव में कथित धांधली को लेकर सेना और सू की की पार्टी में टकराव होने के बाद सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लिया।

 नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित
पार्टी की सर्वोच्च नेता आंग सान सू की का नाम मानवाधिकारों की समर्थक के रुप में लिया जाता था। इसके लिए उन्हें 1991 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। लेकिन एक समय ऐसा भी आया था, जब उनसे यह पुरस्कार वापस लिए जाने की मांग जोर पकड़ने लगी। यह पहली बार नहीं है, जब सू की को नजरबंद किया गया है। इससे पहले उन्हें कई बार हिरासत में लिया गया है।

रंगून में हुआ जन्म
आंग सान सू की जन्म म्यांमार के रंगून में 19 जून 1945 को हुआ। सू की जब दो साल की थी, तो उनके पिता आंग सान की राजनैतिक साजिश के तहत 19 जुलाई 1947 में हत्या कर दी गई। उन्होंने म्यांमार ( उस समय के बर्मा) की आजादी के लिए काफी संघर्ष किया था। इसलिए उन्हें म्याांमार का पिता कहा जाता है।

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उच्च शिक्षा के लिए गईं ऑक्सफोर्ड
सू की ने 1960 तक बर्मा में पढ़ाई की। इसके बाद वह उच्च शिक्षा के ऑक्सफोर्ड चली गईं। वहां उनकी मुलाकात ब्रिटिश विद्यार्थी माइकल ऐरिस से हुई। बाद में दोनों ने शादी की। उनके दो बच्चे भी हैं। लेकिन 1988 में वह अपनी बीमार मां को देखने के लिए म्यांमार लौट गईं। उन दिनों वहां सेना का अत्याचार चरम पर था। इससे वह बहुत दुखी हुईं और उन्होंने  मानवाधिकार हनन के खिलाफ आवाज उठाई।

1989 में रंगून में कर दी गईं नजरबंद
सू की की आलोचना से परेशान होकर म्यांमार की सैन्य सरकार ने उन्हें 1989 में रंगून में हाउस अरेस्ट कर दिया। सेना ने उनसे कहा कि अगर वह देश छोड़ने को तैयार हैं तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। सू की ने उसकी शर्त को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा कि जब तक देश में चुनी हुई सरकार नहीं आ जाती और राजनीति कारणों से कैद किए गए लोगों को नहीं छोड़ा जाता, वह म्यांमार छोड़कर नहीं जाएंगी।

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1990 में हुई जीत
वर्ष 1990 में हुए चुनाव में सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने संसद की 80 फीसदी सीटों पर जीत हासिल की, लेकिन सेना ने इन नतीजों को दरकिनार कर सत्ता हस्तातंरण से इनकार कर दिया। 2010 में आधिकारिक रुप से सेना ने चुनाव के नतीजों को रद्द कर दिया और सू की को नजरबंद रखा गया। इस बीच 1991 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा की गई। सू की की जगह उनके बेटे एलेक्जेंडर ऐरिस ने यह पुरस्कार प्राप्त किया।

शर्तों के साथ रिहाई
सू की को पाबंदियों के साथ 1995 में रिहा कर दिया गया। उन्हें रंगून से बाहर जाने पर रोक लगा दी गई थी। वर्ष 1999 में उनके पति माइकल ऐरिक की इंग्लैंड में मृत्यु हो गई। लेकिन म्यांमार की सैन्य सरकार ने उन्हें उनके अंतिम संस्कार में नहीं जाने दिया। सैन्य सरकार ने कहा कि अगर वह इंग्लैंड जाना चाहती हैं तो हमेशा के लिए जा सकती हैं। सू की ने यह शर्त नहीं मानी और वह घर में ही रहीं।

फिर कर दिया गया नजरबंद
रंगून से बाहर जाने के प्रतिबंध का पालन नहीं करने को लेकर सैन्य सरकार ने एक बार फिर 2000 में उन्हें नजरबंद कर दिया। वह मई 2002 तक नजरबंद रहीं। देश में बढ़ते विरोध को देखते हुए सैन्य सरकार ने वर्ष 2003 में उन्हें फिर से नजरबंद कर दिया। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में उनकी रिहाई की मांग जोर पकड़ने लगी। वर्ष 2009 में संयुक्त राष्ट्र ने ऐलान किया कि सू की को हिरासत में रखना कानून के खिलाफ है। वर्ष 2011 में सू की पर लगी पाबंदियों में ढील दी गई। उन्हें कुछ लोगों से मिलने की इजाजत भी दी गई। बाद में उन्हें यात्रा करने की भी इजाजत दे दी गई।

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2012 में चुनाव मैदान में उतरीं
सू की ने जनवरी 2012 में चुनाव लड़ने का ऐलान किया। उसी साल अप्रैल में हुए चुनाव में उन्होंने आसानी से जीत हासिल कर ली और 2 मई को उन्होंने शपथ ली। 2012 के मई माह में वह थाइलैंड यात्रा पर गईं। यह साल 1988 के बाद उनकी पहली विदेश यात्रा थी। म्यांमार के संविधान के मुताबिक अगर किसी का पति, बच्चे विदेशी नागरिक हैं तो वो चुनाव नहीं लड़ सकतीं। इस वजह से वह चुनाव नहीं लड़ सकीं। हालांकि उनकी पार्टी एनएलडी ने चुनावों में जीत हासिल की। इसके बाद उनके भरोसेमंद तिन क्यों मार्च 2016 में राष्ट्रपति बने।

सू की के लिए बनाया गया सर्वोच्च पद
सरकार में सू की ने शुरू में ऊर्जा, शिक्षा, विदेश और राष्ट्रपति के मंत्री का कार्यभार संभाला। लेकिन बाद में उन्होंने दो मंत्रालय छोड़ दिया। इसके बाद म्यांमार के कानून में परिवर्तन कर सू की को स्टेट काउंसलर बनाया गया। उन्हें राष्ट्रपति से ज्यादा ताकत दी गई। लेकिन सू की लिए नया पद बनाना देश की सेना को पसंद नहीं आया। उसने इसका विरोध किया।

रोहिंग्या मुसलमानों के साथ बर्बरता पर मौन
मानवाधिकार की पक्षधर सू की जब खुद सत्ता में आईं तो देश के रखाइन राज्य मे रोहिंग्या मुसलमानों के साथ सेना ने बहुत ही बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया। वर्ष 2016 से 17 तक रोहिंग्या मुसलमानों ने सेना पर हमले किए, जिसके बाद उनके खिलाफ लेना ने व्यापक अभियान चलाया। इससे लाखों रोहिंग्या देश छोड़ने पर मजबूर हो गए। लेकिन इस मुद्दे पर सू की मौन रहीं। इस वजह से कई संगठनों ने उन्हें दिए पुरस्कार वापस लेने की घोषणा की। शांति के लिए उन्हें दिए गए नोबेल पुरस्कार वापस लेने की भी मांग उठने लगी।

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