मानव चौतरफा मार से परेशान है। उसके हिस्से शारीरिक वेदना है, मानसिक पीड़ा है। वहीं देश-राज्य संसाधन की कमी की वेदना झेल रहे हैं। यह एक श्रृंखला है, जिससे कोई अछूता नहीं है, हां, परिस्थितियां भिन्न-भिन्न हैं। महाराष्ट्र को ही ले लीजिये, प्रतिदिन देश के कुल कोरोना संक्रमितों में से लगभग पैंतालिस प्रतिशत से अधिक पीड़ित यहां से सामने आ रहे हैं।
यहां कोरोना संक्रमण की इस दूसरी लहर में हमला गावों में भी हुआ है, जबकि, शहर हॉट बेड हैं ही। मुंबई बुरी तरह से प्रभावित है। स्वास्थ्य संसाधन दम तोड़ रहे हैं, स्वास्थ्यकर्मी कम पड़ रहे हैं। इससे राजनीति अछूती नहीं है। राजनीति, स्थितियां बिगड़ने तक सभा, समारोहों में खूब वाह-वाही बटोरती रही। अब जब परिस्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि आम जनमानस अस्पताल भटकते-भटकते दम तोड़ रहा है तो फिर राजनीति की वापसी हुई है। राज्य सरकार मदद की गुहार लगाती है और चिल्लाकर-चिल्लाकर उसका ढिंढोरा पीटती है।
योद्धाओं की सरकार
तीन धुरी पर टिकी राज्य सरकार के पास नेताओं का ट्रिपल पॉवर है। उसका नेतृत्व कर रहे नेता राजनीति के बड़े-बड़े योद्धा हैं, जो सत्ताकाल के बुरे समय में भी अपना परचम टिकाए रखने में सफल रहे हैं। लेकिन, जब महामारी से ग्रसित अति वेदना में जनता की चीखें उनकी चौखट पर पहुंच रही हैं तो ये योद्धा गुम हैं। आज जो बोल भी रहे हैं, वे वेदना के निदान के लिए नहीं बल्कि, निदान न दे पाने में दूसरी सरकार की भूमिका को दर्शाने के लिए।
एक घटना तो ऐसी हुई कि अचानक सभी माध्यमों में प्रसारित किया गया कि मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को फोन किया था। प्रधानमंत्री को फुर्सत नहीं थी, वे पश्चिम बंगाल चुनाव में व्यस्त थे। इसे खूब बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया। इसमें मुद्दा ये खड़ा किया गया कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का फोन तुरंत प्रधानमंत्री जी उठाएं तो गंभीर अन्यथा केंद्र की भूमिका संदेहास्पद है। लेकिन प्रधानमंत्री के पद और उनकी व्यस्तता को समझना पड़ेगा। जब एक मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री के फोन पर न मिलने से इतना आक्रोशित हो जाता है और उसके खबरिये तरह-तरह की बातें देश के प्रधानमंत्री के विषय में फैलाते हैं तो उस मुख्यमंत्री और उसके खबरियों को अपने दामन में भी झांकना चाहिए। जब प्रधानमंत्री महामारी पर गहन चर्चा के लिए देश के सभी मुख्यमंत्रियों से वर्चुअल पटल पर चर्चा कर रहे होते हैं तो एक मुख्यमंत्री को भी ये शोभा नहीं देता कि वो मोबाइल देखता रहे और फोन पर बातें करता रहे।
उठा लिया…
सरकार की लड़ाई में जनता पिस रही है। इसका एक और उदाहरण देता हूं, रेमडेसिविर इंजेक्शन को लेकर ही ट्वीटर वॉर छेड़ दिया गया। इसकी आपूर्ति केंद्र सरकार रोक रही है, ऐसे आरोप राज्य के एक जिम्मेदार मंत्री ने लगाया। इसका उत्तर भी केंद्रीय मंत्री ने उसी माध्यम से दिया। लेकिन शाम होते-होते इंजेक्शन दिलाने में नाकाम सरकार ने उस इंजेक्शन के निर्यातक को ही उठा लिया। पश्चिमी उपनगर के उसके घर पर 11 पुलिसवालों को भेजकर पूछताछ के लिए बुला लिया गया। किसी उद्योगपति के घर अचानक 11 पुलिसकर्मी पहुंचे और उसे पुलिस थाने लाएं तो कैसा डर उत्पन्न होता है, इसकी कल्पना की जा सकती है। वैसे ये सरकार ‘उठा लिया’ के पहले ‘उखाड़ दिया’ का भी खेल रच चुकी है। देर रात जब सभी कागज पत्री सामने आई तो पुलिस विभाग के वरिष्ठ अधिकारी ने उस उद्योगपति को छोड़ दिया।
क्यों हो रही अब ये बातें?
यहां सौ करोड़ की वसूली की चर्चा का आरोप लगने पर गृहमंत्री पदच्युत हो जाते हैं, छोटे पद का एक पुलिस अधिकारी जिन गाड़ियों से घूमता था, वो सभी पच्चीस-पचास लाख से कम की नहीं थीं। दवा निर्यातक के विरुद्ध यदि प्रमाण थे तो छोड़ क्यों दिया? यह मुद्दे सरकार की ढीली पकड़ का परिणाम है या वो केंद्र सरकार और विपक्ष के ट्रैप में फंस गई है, इन दोनों ही स्थितियों में नुकसान आम जनता का ही है। मुख्यमंत्री जी ने लॉकडाउन के पहले संबोधन में ही कहा था कि हम सब ‘मावले’ (योद्धा) हैं और इस महामारी पर विजय प्राप्त करके एक आदर्श स्थापित करेंगे। राज्य की जनता मुख्यमंत्री जी के मावले के रूप में आज भी खड़ी है। जो कल की पहली लहर में महामारी से बचने के लिए चौखट तक ही सीमित रहकर खड़ी थी तो अब दूसरी लहर में अस्पतालों में बिस्तर, दवा और सांसों को उखड़ने से बचाने को खड़ी है। …पर आदर्श गुम है और आरोप का आलाप तेज…