बाबाराव सावरकर क्रांतिकार्यों की वह ज्योति लेकर चल रहे थे, जिससे प्रकाशित होकर असंख्य युवा राष्ट्र स्वातंत्र्य के लिए अंग्रेजों से लड़ने लगे थे। क्रांतिकारियों की इसी माला के एक दमकते मणि थे राजगुरु। जिन्हें राष्ट्रकार्य के लिए बाबाराव सावरकर ने गुरु मंत्र दिया, भगत सिंह से भेंट करवाई।
बाबाराव सावरकर अर्थात गणेश दामोदर सावरकर, वर्ष 1926 में वे मुंबई के खार में रहते थे। वहां उनसे भेंट करने पुणे से राजगुरु आते थे, यहां दोनों के बीच कई घंटे मंत्रणा होती रहती। कहते हैं, राजगुरु ने ऐसे ही बाबा के सानिध्य को स्वीकार नहीं किया था, इसके पीछे बाबाराव का अतिविस्तृत क्रांतिकार्य, राष्ट्र के लिए प्राणांतक यातनाएं सहनेवाला दृढ़ निश्चयी स्वभाव, स्वतंत्र भारत के लिए अपने प्राण और परिवार को मातृभूमि की बेदी पर अर्पण करनेवाला संकल्प, अंदमान में मृत्युदायी कालापानी की सजा को मात करके लौटनेवाले योद्धा का व्यक्तित्व था। राजगुरु इसीलिए बाबाराव सावरकर के सानिध्य में क्रांति की माला में जुड़ने लगे थे।
…और भारत की स्वातंत्र्य क्रांति के दो मणि मिल गए
राजगुरु अपने गुरु बाबाराव सावरकर के सानिध्य में क्रांति के गुणों को आत्मसात कर रहे थे। इसी के मध्य बाबाराव ने भगत सिंह के ‘दि हिंदुस्थान रिपब्लिकन आर्मी’ से राजगुरु का संपर्क करा दिया। लाहौर निवासी भगत सिंह की यह गुप्त संस्था थी, जो क्रांतिकारियों की प्रेरक और पोषक थी। क्रांतिकार्यों की योजना के लिए राजगुरु पंजाब भी गए थे, वहां से वे नागपुर आ गए, जिससे अंग्रेजों के गुप्तचरों को भ्रमित किया जा सके। यहां उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाओं में कार्य भी किया।
लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला
अंग्रेजों ने सायमन कमीशन लागू किया था। इसके विरोध स्वरूप लाहौर में लाला लाजपतराय ने प्रदर्शन किया। अंग्रेज अधिकारी साउंडर्स ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज करने का आदेश दे दिया। प्रदर्शनकारियों पर क्रूरता से लाठी चार्ज हुआ, जिसमें लाला लाजपतराय गंभीर रूप से घायल हो गए और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये। इससे आक्रोशित क्रांतिकारियों ने साउंडर्स को दंड देकर बदला लेने का निश्चय किया।
17 सितंबर, 1928 को सायं 4 बजे भगत सिंह और राजगुरु ने साउंडर्स पर गोलियां दागकर उसे मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद राजगुरु पुणे लौट आए। परंतु, पुलिस के हाथ जल्द ही लग गए। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 7 अक्टूबर, 1930 को स्पेशल ट्रिब्यूनल ने फांसी की सजा सुना दी।
गांधी ने ठुकरा दिया बाबाराव का सुझाव
महान क्रांतिकारी बाबाबाराव सावरकर का हृदय भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को बचाने के लिए धड़कने लगा। गांधी की नीतियों के प्रबल विरोधी रहे बाबाराव सावरकर ने अपने विचारों की तिलांजलि दे दी और गांधी जी से चर्चा के लिए वर्धा गए।
उस समय 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन को रोकने के लिए गांधी और आयर्विन के बीच एक करार होना था। इसके लिए 14 फरवरी, 1931 को गांधी जी ने वाइसरॉय लॉर्ड आयर्विन से भेंट का समय मांगा था। 16 फरवरी को आयर्विन के यहां से भेंट का समय मिला। इसके एक दिन पहले 15 फरवरी को बाबाराव सावरकर वर्धा आश्रम में पहुंचे थे। उस भेंट में जो चर्चा हुई वह इस प्रकार है…
बाबाराव सावरकर जी – आप कल दिल्ली जा रहे हैं, वहां सविनय अवज्ञा आंदोलन समाप्ति के लिए आपकी चर्चा वाइसरॉय से होगी। इस चर्चा में आप दोनों के मध्य एक करार होगा, ऐसे करार जब भी होते हैं, उस समय राजबंदियों को छुड़ाने की पहली शर्त होती है। आप भी करार करते समय राजबंदियों को छुड़ाने का आग्रह दृढ़ता से करें, यही विनंती करने मैं आया हूं।
गांधी जी – ठीक, तो उसमें विनंती कैसी? मैं राजबंदियों को छोड़े जाने की शर्त रखूंगा, यह मेरा कर्तव्य है।
बाबाराव सावरकर जी – राजबंदियों में अत्याचारी (क्रांतिकारियों के लिए गांधी का संबोधन) और साधारण ऐसा भेद न किया जाए, मेरी यह विशेष मांग है। विश्व में कहीं भी ऐसा भेद नहीं किया जाता है। ऐसा अन्यायकारी भेद हमारे यहां होगा, मुझे ऐसा डर है।
गांधी – देखो सावरकर, भेद करना योग्य कि अयोग्य, इस प्रश्न को कुछ समय के लिए हम छोड़ देते हैं। मेरी नीति है कि, प्रतिपक्ष द्वारा जो दिया जाना संभव हो, उतना ही मांगना चाहिये। अधिक मांगकर इसमें रोड़ा नहीं अटकाना चाहिए। ऐसे समय में जब अत्याचारी (क्रांतिकारियों के लिए गांधी का संबोधन) लोगों को नहीं छोड़ा जाएगा यह पता है तो, उनकी रिहाई की मांग करने में क्या अर्थ है?
बाबाराव सावरकर जी – प्रतिपक्ष जितना दे उतना ही मांगें, उससे अधिक न मांगें आपकी यह नीति ही मुझे अनुचित लगती है। यदि यह नीति सही है तो स्वराज्य की मांग कैसे की जाएगी? हम स्वराज्य मांगे ही नहीं, क्योंकि अंग्रेज वह देंगे ही नहीं। हम यहां अपने व्यर्थ के अधिकारों की मांग करते रहें।
⇒ बाबाराव सावरकर जी के इस युक्तिवाद को सुनकर गांधी क्षणभर के लिए मौन रहे। कुछ देर बार उन्होंने बात को दूसरी ओर मोड़ दिया…
गांधी जी- देखिये, अत्याचारी लोगों को मुक्त करिये, कहना हीनता है। मैं यह बिल्कुल नहीं कहूंगा। मैं अपने अहिसां के मार्ग से कैसे हटूं?
बाबाराव सावरकर जी – अत्याचारी राजबंदियों के मुक्ति की मांग करना यदि आपको हीनता लगती है तो, स्वामी श्रद्धानंद की हत्या करनेवाले अब्दुल रशीद के लिए हिंदू समाज और स्वामी जी के पुत्र से आपने यह कैसे कहा कि, ‘भाई अब्दुल रशीद को क्षमा करें’, क्या वो हीनता नहीं थी?
उसके लिए की गई हीनता इन क्रांतिकारी राजबंदियों के लिए क्यों नहीं करते?
⇒ इसके बाद गांधी की मुद्रा ही बदल गई। निरुत्तरित मुद्रा में वे वहां से निकल गए।
इसके बाद भी बाबाराव सावरकर का क्रांतिकारी मन नहीं माना और उन्होंने गांधी को रजिस्टर्ड पत्र भेजा। इस पत्र के माध्यम से भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों की रिहाई की मांग की।
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