क्या सियासी भूमि बचा पाएंगे रामविलास के चिराग?

रामविलास पासवान काफी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे। इस वजह से पहले से ही चिराग की चुनौतियां बढ़ गई थीं। उन्हें एक तरफ तो अपने पिता के स्वास्थ्य पर ध्यान रखना होता था तो दूसरी तरफ बिहार के चुनाव की रणभेरी भी बज चुकी थी। इस वजह से अपनी पार्टी की रणनीति तैयार करने के साथ ही कार्यकर्ताओं को एकजुट रखना भी उनके लिए बड़ी चुनौती थी। उन्होंने इन दोनों ही मोर्चे पर काफी बेहतर काम किया।

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लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक और केंद्रीय खाद्य आपूर्ति मंत्री रामविलास पासवान के बिहार चुनाव से ऐन पहले निधन से एकाएक उनके पुत्र चिराग पासवान की जिम्मेदारी बढ़ गई है। युवा नेता और बिहार के दलित समाज में अपनी पार्टी की जड़ों को मजबूत बनाने की कोशिश में लगे चिराग के लिए निश्चित रुप से ये परीक्षा की घड़ी है। हालांकि 2019 में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये जाने के बाद उन्होंने बिहार की राजनीति में काफी सक्रियता दिखाई है और इतने कम समय में उन्होंने खुद को अपने पिता की जगह स्थापित करने की बहुत अच्छी कोशिश की है।

राजनीति के लिए बॉलीवुड को कहा अलविदा
कभी बॉलीवुड में नाम कमाने की महत्वकांक्षा पाल रखे चिराग पासवान का बहुत जल्द ही मायानगरी से मोहभंग हो गया था। फिल्म “मिलें ना मिलें हम” उनकी पहली और आखिरी फिल्म थी। यह फिल्म 2011 में रिलीज हुई थी और इसे बॉक्स ऑफिस पर बहुत ही ठंडा प्रतिसाद मिला था। इसके बाद चिराग ने बॉलीवुड को अलविदा कहकर राजनीति का रुख कर लिया था।

पिता से सीखे राजनीति के दांव पेच
बिहार वापसी के बाद उन्होंने अपने पिता से राजनीति के दांव पेच सिखना शुरू कर दिया। इसी बीच सीनियर पासवान का स्वास्थ्य खराब रहने लगा और उन्होंने 2019 में चिराग को पार्टी की बागडोर सौंप दी। तब से अब तक उन्होंने अपने पिता के विश्वास पर खरा उतरने की पूरी कोशिश की है और कम समय में ही बिहार के उभरते हुए क्षत्रपों में उनका नाम गिना जाने लगा है। जी तोड़ मेहनत करने और लोगों के बीच रहकर राजनीति करने की उनकी नीति ने राजनैतिक जानकारों के साथ ही बिहार की जनता को काफी प्रभावित किया है। एक तरफ उन्होंने बिहार की राजनीति में पूरी सक्रियता दिखाई है तो दूसरी तरफ केंद्र के नेताओं और मंत्रियों में भी अपनी छवि को अपने पिता की तरह ही बनाकर रखा है। उनके पिता ने भी चिराग पर पूरा भरोसा जताते हुए एक बार कहा था कि वो जो भी फैसला लेगा, उसमें मेरा पूरा समर्थन है।

फैशन डिजायनर भी हैं चिराग
चिराग पासवान का जन्म 31 अक्टूबर 1982 को हुआ था। बहुत कम लोगों को मालूम है कि कंप्यूटर साइंस के साथ ही उन्होंने फैशन डिजायनिंग में भी डिग्री ली है। राजनीति की बात करें तो वे जमुई से सांसद हैं। लगभग 28 साल के चिराग के पास जो कुछ भी है, वह कम नहीं है। उनके पास काफी वक्त है और वो इस बात को अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए वे राजनीति में खतरों के खिलाड़ी बनने को तैयार हैं।

पहले ही बढ़ गई थीं चुनौतियां
रामविलास पासवान काफी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे। इस वजह से पहले से ही चिराग की चुनौतियां बढ़ गई थीं। उन्हें एक तरफ तो अपने पिता के स्वास्थ्य पर ध्यान रखना होता था तो दूसरी तरफ बिहार के चुनाव की रणभेरी भी बज चुकी थी। इस वजह से अपनी पार्टी की रणनीति तैयार करने के साथ ही कार्यकर्ताओं को एकजुट रखना भी उनके लिए बड़ी चुनौती थी। उन्होंने इन दोनों ही मोर्चे पर काफी बेहतर काम किया।

सोची-समझी रणनीति
भले ही विशेषज्ञों को लग रहा है कि चिराग ने एनडीए से बाहर होकर मुसीबत मोल ले ली है, लेकिन उन्होंने इस तरह का निर्णय सोची-समझी रणनीति के तहत ही लिया है। चिराग ने बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू अध्यक्ष नीतीश कुमार को अपना दुश्मन नंबर वन घोषित किया है तो वहीं वे भारतीय जनता पार्टी के प्रति अपना रुख नरम रखे हुए हैं। बिहार चुनाव में भाजपा का जेडीयू से गठबंधन है। इसलिए भाजपा के नेता भले ही उन्हें पीएम मोदी के चेहरे को चुनाव में उपयोग नहीं करने की बात कर रहे हों, लेकिन उनके मन में चिराग के लिए लाड-प्यार साफ दिखता है।

शाह के संकेत
“मोदी सरकार उनके बिहार के विकास के सपने को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध रहेगी।” केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह कहकर बिहार में भविष्य की राजनीति की ओर इशारा किया है और इसके कई मायने निकाले जा रहे हैं। दूसरी तरफ चिराग ने भी बिहार के पहले चरण के चुनाव में भाजपा के खिलाफ लोजपा के एक भी उम्मीदवार नहीं उतारकर अपना वचन निभाया है और भाजपा का भरोसा जीता है।

चिराग के पास खोने के लिए कुछ नहीं
वैसे भी चिराग के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। वर्तमान में उनकी पार्टी के मात्र दो विधायक हैं। इनकी बदौलत चिराग अपने भविष्य की महत्वाकांक्षा पूरा नहीं कर सकते। इसलिए उन्होंने 143 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने का ऐलान किया है। इनमें से कितनी सीटों पर उनकी पार्टी को जीत मिलेगी, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन इतना तो तय है कि किसी भी हालत में लोजपा को दो से अधिक सीटें ही मिलेंगी।

भाजपा के पूर्व नेताओं पर खेला दांव
चिराग पासवान ने अभी तक ज्यादातर भारतीय जनता पार्टी के उन दबंग नेताओं को ही उम्मीदवार बनाया है,जिन्हें भाजपा से टिकट नहीं मिले थे। इस तरह लोजपा के ऐरे-गैरे को टिकट न देकर भाजपा से आए नेताओं को टिकट देकर उन्होंने राजनैतिक परिक्वता के साथ ही दूरदर्शिता का परिचय दिया है।

क्या कहते हैं अन्य पार्टियों के नेता?
पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा के एमएलसी संजय पासवान का मानना है कि चिराग पासवान के लिए अपने पिता की विरासत को संभालकर रखना एक बड़ी चुनौती है। उन्होंने जिस तरह के जनाधार और लोकप्रियता हासिल की थी, वह उनके समर्थकों के साथ ही विरोधियों को भी चौंका देनेवाली थी। इस चुनाव में चिराग की परीक्षा होगी। आरजेडी के श्याम रजाक का मानना है कि रामविलास पासवान सिर्फ बिहार ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर के नेता थे। दलित आंदोलनों में मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिला है। चिराग के लिए उनकी कमी को पूरा करना आसान नहीं होगा।

लंबी पारी खेलने की तैयारी
निश्चित रुप से चिराग पासवान के लिए अपने पिता की विरासत को बचाए रखना आसान नहीं होगा, लेकिन जिस तरह का संघर्ष उन्होंने शुरू किया है, उसे देखकर यह जरुर कहा जा सकता है कि वो लंबी रेस के घोड़ा हैं और यह भी कि वे अपने सपने को पूरा करने के लिए हर तरह के संघर्ष करने, खतरा मोल लेने के लिए तैयार हैं। उनकी नजर बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर है। उनकी पार्टी ने तो उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री के रुप में पेश करना भी शुरू कर दिया है। हालांकि ये सब इतना आसान तो नहीं है लेकिन असंभव भी नहीं है।

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