स्वातंत्र्यवीर सावरकर कालापानी मुक्ति शतक पूर्ति! …ताकि हमारा अस्तित्व रहे कायम

वीर सावरकर ने अत्याचारों के विरुद्ध बंदियों को संगठित किया। आवेदन पत्रों से लेकर हड़ताल तक सभी मार्ग अपनाए। १९१४ में सात बंदियों को छोड़कर, जिनमें से एक उनके बड़े भाई थे, अन्य सभी राजबंदी रिहा कर दिये गए। बाकी लोगों को जेल के बाहर रखा गया, उनको अपना खाना बनाने की अनुमति मिली परंतु केवल वीर सावरकर ऐसे एकमात्र बंदी थे जिन्हें अंतिम दिन तक, यानि 2 मई, १९२१ तक कोठरी में बंद रखा गया।

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वीर सावरकर को अंदमान से भारत भेजा गया, इसकी शताब्दी हुई है। इस घटना का महत्त्व क्या है? पहला तो यह कि, ११ साल अंग्रेजों के कारावास में नारकीय यातनाएं भुगतने के बाद वे भारत लौट रहे थे। पचास साल की सजा का अर्थ स्पष्ट था, अब वे जिन्दा कारावास से बाहर नहीं आएंगे, ऊपर से अंदमान में क्रातिकारियों को यम यातनाएं सहनी पड़ती थीं वह अलग। कई लोगों ने आत्महत्या की, कई अपना मानसिक संतुलन खो बैठे, एक समय आया की स्वयं वीर सावरकर भी अपने आपको असहाय महसूस करने लगे। उन्होंने सोचा की अब यह यातनाएं व्यर्थ सहने का क्या उद्देश्य है? फांसी लेकर सब खत्म करते हैं। पर उनका आतंरिक बल अब भी मजबूत था। उन्होंने स्वयं को समझाया की व्यर्थ मरने से क्या होगा? अपने पक्ष की हानि और शत्रु का लाभ! ऐसे कायर की तरह मरने के स्थान पर किसी शत्रु को मारकर मरूंगा! उन्होंने, अपना मनोबल बढ़ाने के लिए दीवार पर कांटे से कविता लिखनी शुरू की। वे बताते थे कि मैं दिन में बंदी था पर रात के समय सपनों में विश्व की सैर करता था। वे दूसरे बंदियों का मनोबल बढ़ाने लगे। सभी बंदी उनकी ओर देखकर दिन काटते थे। ये बंदी चर्चा करते थे कि, बड़े बाबू को तो पचास साल की सजा हुई है। यदि वे यह सजा काट सकते हैं तो हम अपनी 5-10 साल की सजा आसानी से काट ही लेंगे।

बंदियों के लिए वहां उन्होंने बड़ा कार्य किया। अनपढ़ बंदियों को पढ़ना-लिखना सिखाया, अनेक राजबंदी पढ़ाई छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। सावरकर का मानना था कि अगर ये क्रांतिकारी अपनी पढ़ाई पूरी कर लें तो भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात देश को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उनके लिए, जिनकी पढ़ाई पूरी हुई थी ऐसे क्रान्तिकरियों की सहायता से वीर सावरकर विशेष शिक्षा उपक्रम चलाते थे। ये सब काम चोरी छुपे संचालित होता था। क्रांतिकारियों के लिए वे केवल मार्गदर्शक ही नहीं अपितु, मानसिक ऊर्जा का अखंड स्त्रोत बन गए थे।

बंगाल के महँ उल्लासकर दत्त अपना अनुभव लिखते हैं, हड़ताल के लिए दीवार पर बेड़ियों से जकड़कर लटकाया गया था। बुखार तेज होने के बाद भी उन्हें कई घंटे ऐसे ही रखा गया। इससे उनका बुखार मस्तिष्क में चला गया और उन्हें भ्रम हो गया। इस भ्रम के विषय में वे लिखते हैं कि, “मै मूर्छा में लटका था, अचानक बारी मेरे सामने आया और उसने मुझे द्वंद्व की चुनौती दी। मेरे स्वीकार करने पर उसने मुझे पूछा कौन लड़ेगा तुम्हारी ओर से? मैंने तुरंत कहा सावरकर! और सावरकर ने उस द्वंद्व में बारी को बुरी तरह पराजित किया।”

उन्होंने, अत्याचारों के विरुद्ध बंदियों को संगठित किया। आवेदन पत्रों से लेकर हड़ताल तक सभी मार्ग अपनाए। १९१४ में सात बंदियों को छोड़कर, जिनमें से एक उनके बड़े भाई थे, अन्य सभी राजबंदी रिहा कर दिये गए। बाकी लोगों को जेल के बाहर रखा गया, उनको अपना खाना बनाने की अनुमति मिली परंतु केवल वीर सावरकर ऐसे एकमात्र बंदी थे जिन्हें अंतिम दिन तक, यानि 2 मई, १९२१ तक कोठरी में बंद रखा गया।

इस पश्चात १९१५ से पुन: बड़ी संख्या में राजबंदी आने लगे। पुन: हड़ताल, संघर्ष। अंग्रेज मानते थे कि कारागृह में बढ़ रहे असंतोष के पीछे उन्हीं का हाथ है। सावरकर जी ने सभी राजबंदियों को छोड़ने के लिए कई आवेदन किये, उनके भाई डॉ. सावरकर ने यह मांग देश के हर व्यासपीठ पर उठाया। सावरकर जी ने अपने सभी आवेदन में यह स्पष्ट लिखा है कि उनको ना छोड़ें, परंतु, अन्य क्रांतिकारियों को अवश्य छोड़ दें। इसके पश्चात १९१९ तक लगभग सभी क्रांतिकारी छोड़े गए, मगर सावरकर बंधु २ मई, १९२१ तक वहीं थे। उनके साथ जेल में रहे बंदी ने लिखा कि ब्रिटिशों को डर था कि यदि उन्हें मुक्त किया गया तो वे क्रांति की ज्वाला प्रज्वलित कर देंगे। अंत में २ मई को उन्हें वहां से भारत इसलिए भेजा गया कि शासन ने अंदमान के करागृह-वसाहत को बंद करने का निर्णय लिया था।

लोगों को लगता है कि भारत आकर उन्हें मुक्त किया गया और इसीलिए हम ये शताब्दी दिन मना रहे हैं। हां, अंदमान से वापस आना ही एक आजीवन कारावास पर गए बंदी के लिए बड़ी बात थी, मगर भारत आकर भी उनकी नारकीय यातनाएं समाप्त नहीं हुईं। यहाँ उन्हें तीन साल तक कारागृह में बंद कर दिया गया, जहाँ की परिस्थिति तो और भी भयावह थी। अंदमान में उन्हें १३ फुट * 7 फुट की कोठरी में बंद रखा गया था, परंतु, यहाँ 8 फुट * 6 फुट कि कोठरी में जन्जिरों से बाँधकर रखा गया था।

कालापानी मुक्ति शताब्दी मनाने का एक और कारण हमारे समक्ष है। सावरकर के भारत लौटने के पश्चात भारतीय राजनीति की धरा ही बदल गई। आज हम जो भी खंडित स्वतंत्रता की अनुभूति कर रहे हैं उसका श्रेय सावरकर जी को ही जाता है। यहाँ आने के पश्चात उन्होंने हिन्दूओं को संगठित करने का महान कार्य किया, जिसमें जाति निर्मूलन, सामाजिक सुधार, हिन्दुओं का सैनिकीकरण सम्मिलित हैं। इस कार्य की शुरुवात अब सौ साल हो गए हैं।

वे यहाँ आए तो मोपला आन्दोलन जोरशोर से शुरू था। तुर्की के खलीफा को बर्खास्त किया गया था और भारतीय मुस्लिमों की मांग थी कि उसे पुन: सत्ता पर लाया जाए। जिस तुर्किस्तान का वह बादशाह था, वहां की तुर्की जनता ने ही केमाल पाशा के नेतृत्व को स्वीकार करके उसे सत्ता से हटाया था। पूरे विश्व के मुसलमान इस विषय पर चुप्पी साधे हुए थे। इस विषय से भारतीय मुस्लिमों का कोई लेना देना नहीं था, मगर इस्लामी राज्य की स्थापना के लिए प्रयत्नरत मुस्लिम नेताओं ने इस अवसर का लाभ उठाकर आन्दोलन शुरू किया। उन्हें गाँधी ने पूरा समर्थन दिया और खिलाफत आन्दोलन शुरू हुआ। बाद में इसमें स्वतंत्रता की मांग भी जोड़ी गई और इसे असहकार आन्दोलन का नाम दिया गया, ताकि हिन्दू भी इसका सहयोग करें। गाँधी ने आगे चलकर यह भी कहा कि खिलाफत की मांग स्वीकार हुई तो हम स्वतंत्रता का मामला बगल में करने को तैयार हैं। यह आन्दोलन अचानक हिंसक हुआ और देश में कई जगह हुए दंगों में मुस्लिमों ने हिन्दुओं पर अत्याचार किये। केरल के मोपलो ने तो अत्याचार की सीमा ही तोड़ दी और वहां इस्लामी राज्य की घोषणा कर दी। उसके बाद वहां हजारो हिन्दू मारे गए, हजारों स्त्रियों पर सामूहिक बलात्कार हुए, उन्हें बेचा गया, स्त्रियों के पेट फाड़कर अंदर से गर्भ बाहर निकाले गए, मंदिर तोड़े गए और लाखों हिन्दू बलपूर्वक मुस्लिम बनाये गए। इसका गाँधी पर कुछ भी असर नहीं पड़ा और इन सब खबरों को अफवाह करार कर देते हुए गाँधी ने आदोलन जारी रखा। जब ब्रिटिश सेना ने ये मोपला विद्रोह कुचल डाला तो गाँधी ने उन्हें “माय ब्रेव्ह मोपला ब्रदर्स’ कहा!

सावरकर अंदमान कारावास से ही इस खिलाफत पर नजर रख रहे थे। उन्होंने भारत को सचेत किया कि भविष्य में यह खिलाफत भारत के लिए एक आफत बनेगा। भारत में आने के बाद उन्हें पता चला कि खिलाफत के नेताओं ने अफगान के आमिर को हिंदुस्थान पर आक्रमण करने का न्यौता दिया है। स्वामी श्रद्धानंद ने खिलाफत नेता मुहम्मद अली के हाथ में उस तार का मसौदा देखा था, जो गाँधी के हस्ताक्षर में था! गाँधी ने निवेदन करते हुए कहा था कि जिस शासन ने लोगों का विश्वास गंवाया हो, ऐसे शासन को बचाने के लिए हम सहयोग नहीं देंगे। सावरकर जी के समक्ष इतिहास दोहराता हुआ दिखने लगा। इसी मार्ग से इस्लाम ने भारत पर आक्रमण किया था और पूरे भारत को गुलाम बनाया था। सावरकर जी ये होने न देते, उन्होंने हिन्दुओं को संगठित करने हेतु हिंदुत्व की संकल्पना रखी, जो आज भी भरत के करोड़ो हिन्दुओं को प्रेरित करती है। आगे के तेरह वर्षों तक वीर सावरकर रत्नागिरी में नजरबन्द रहे, इस नजरबन्दी काल में उनके राजनीति में सहभाग लेने पर प्रतिबंध था, समाज सुधार का कार्य वे कर रहे थे। वस्तुत: उन्होंने उस समय हिन्दू समाज की अस्पृश्यता, जातिभेद आदि दुष्ट रुढ़ियों के विरुद्ध जो जंग पुकारी थी उसी के कारण हिन्दुओं में एकता बढ़ी और आज हम एक बलशाली हिन्दू समाज के रूप में खड़े हैं।

१९३७ में जब सावरकरजी पूर्ण मुक्त होकर हिन्दू महासभा में शामिल हुए, तो गांधी का प्रभाव पूरे देश पर जम गया था। मुस्लिम सहयोग की आड़ में गाँधी मुस्लिम लीग की सभी बातें मानते जा रहे थे और सावरकर इसी के विरोधी थे। उनका कहना था कि, अगर इस प्रकार हम मुस्लिमों की अन्यायी मांगें मानते गए तो इन मांगों का अंत तो पाकिस्तान में ही होगा। मगर तब के समाज ने सावरकर जी का समर्थन नहीं किया।

उस समय यह निश्चित हो गया था कि जब भी अंग्रेज भारत छोड़कर जाएंगे, उसके पूर्व वे देश के दो टुकड़े करेंगे। मोर्ले-मिन्टो रिफॉर्म से शुरु हुई इस योजना के अंतर्गत आगे चलकर अलग मुस्लिम मतदाता संघों का निर्माण, मुस्लिमों को उनकी संख्या से अधिक प्रतिनिधित्व आदि मुस्लिम लीग की मांगों को स्वीकार कर लिय गया। अंत में क्लिप्स योजना के अंतर्गत मुस्लिम बहुल राज्यों को स्वयं निर्णय का अधिकार देने की पेशकश की गई। दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ तब भारत का विभाजन होना एक अनिवार्य बात बन गई थी। तब हमारी सेना में मुसलमान लगभग ६५ प्रतिशत थे और सावरकर के लिए ये तो सीधे-सीधे खतरे का संकेत था। इसका सीधा अर्थ था कि पाकिस्तान का निर्माण होने बाद वो उर्वरित हिंदुस्थान को सेना के बल पर अपना गुलाम बना लेगा। इसीलिए सावरकर ने एक मुहिम चलाई – राजनीति का हिन्दुकरण और हिन्दुओं का सैनिकीकरण! इसके दो उद्देश्य थे, एक तो देशभक्त जनता की संख्या को सेना में बहुसंख्य तक ले जाना और दूसरा अवसर देखकर सैनिक विद्रोह करना। वे कई समय से रासबिहारी बोस के संपर्क में थे, जो आजाद हिन्द सेना के संस्थापक थे। सावरकर अपनी सभा में कहते थे कि आज ब्रिटिश आपको सेना में लेकर प्रशिक्षित करना चाहती है। जब ऐसा समय आएगा तो ये हमारे हाथ में होगा कि बन्दूक की नोंक किस दिशा में घुमाएं। उनके साथ चर्चा के बाद ही नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जापान गए और वहां पर रासबिहारी बोस ने उन्हें आजाद हिन्द सेना की कमान सौंप दी।

आगे चलकर नेताजी ने 25 जून, 1944 को  सिंगापुर रेडियो पर संदेश जारी किया। उन्होंने सावरकर जी के बारे में कहा था कि, जब जब अपनी भटकी हुई राजनीति और सनक के कारण सभी कांग्रेसी नेता भारतीय सैनिकों का आंतकवादी के रूप में निंदा कर रहे हैं, उस समय यह हर्ष की बात है कि वीर सावरकर निडर होकर भारतीय युवकों को सेना से जुड़ने के लिए कह रहे हैं। यही अधिनस्थ सैनिक बाद में शिक्षित सैनिक के रूप इंडियन नेशनल आर्मी को मिलेंगे।

दुर्भाग्य से जापान की हार हुई और आजाद हिन्द सेना का सपना साकार न हो सका। फिर भी सेना में विद्रोह की जो चिंगारी भड़की थी उससे ब्रिटिश सचेत हो चुके थे। १९४६ के नौसेना विद्रोह के बाद प्रधानमंत्री एटली ने तो मान लिया था कि अब हिंदुस्थानी सेना ब्रिटिशों के प्रति इमानदार न होने के कारण भारत को आजादी देना अपरिहार्य है। मगर जाते-जाते वे भारत के दो टुकड़े कर गए। अंतिम क्षण तक वीर सावरकर अखंड भारत के लिए लड़ते रहे, मगर उनकी कोई सुनी नहीं गई। जैसी आशंका थी, पाकिस्तान ने स्वतंत्र होने के बाद कश्मीर पर धावा बोल दिया। मगर वीर सावरकर के प्रयासों से तब तक भारतीय सेना हिन्दू बहुल हो चुकी थी और हमने पाकिस्तान को चार बार परास्त किया। हम इन योगदानों के लिए वीर सावरकर के ऋणी हैं। सौ साल पहले के इस इतिहास को एक नई दिशा देने के पीछे हमारा प्रयत्न है कि हमारा अस्तित्व कायम रहे, जो कालापानी मु्क्ति शताब्दी मनाने का एक और कारण भी है।
जय हिन्द! वन्देमातरम!!

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