प्राचीन मुद्राएं भी कहती हैं राम राज की कहानी  

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नागपुर। भगवान राम भारत के कण-कण में समाहित है। यह लोकोक्तियों में हैं, ग्रंथों में हैं तो दूसरी तरफ प्राचीन मुद्राओं में भी राजा राम की प्रतिमाएं टंकित हैं। ऐसी ही एक प्राचीनतम् मुद्रा है बारहवीं शताब्दी के नरेश विग्रहराज-चतुर्थ के काल की। जिसमें भगवान राम के धनुर्धारी रूप को मुद्रा पर टंकित किया गया है।

विश्व की सभ्यताओं में भारतीय संस्कृति अति प्राचीनतम है। यहां की भाषा संस्कृत को देव भाषा माना जाता है। इसी प्रकार यहां धर्म और संस्कृति के कण-कण में बसे हैं भगवान राम। इसके कई प्रमाण जिवंत रूप में मिलते हैं। जो पुरातत्वविदों के द्वारा प्रमाणित हैं। इसी में से एक है बारहवीं शताब्दी की मुद्रा जिसे चाहमान के शाकंभरी नरेश विग्रहराज-चतुर्थ ने टंकित करवाई थी। इस मुद्रा में मात्र प्रभु राम की ही प्रतिमा है। ये स्वर्ण मुद्रा है जिसका भार चार ग्राम के लगभग है, यह गोलाकार आकार में मुद्रा है और देश में ऐसी मात्र दो ही मुद्राएं हैं। ये मुद्रा प्रभु राम के राज की कहानी कहती हैं। जो पौराणिक इतिहास का उत्कृष्ट नमूना है। भारतीय संस्कृति निधि के संयोजक और पुरातत्व के जानकार अशोक सिंह ठाकुर के अनुसार नरेश विग्रहराज चतुर्थ का शासनकाल 1153 से 1163 तक था।

मुगल शासलनकाल में भी थी प्रभु राम पर मुद्रा
अशोक सिंह ठाकुर ने बताया कि अकबर ने अपने शासनकाल में प्रभु रामचंद्र और सीता की प्रतिमा टंकित मुद्रा जारी करवाई थी। यह सोलवहीं शताब्दी में जारी की गई थी। उस काल में इस मुद्रा को विश्व में काफी प्रसिद्धी मिली थी। यदि पौराणिक मान्यताओं को देखा जाए तो प्रभु राम अखंड भारत के राजा थे। जिनका राज वर्तमान के कई देशों तक फैला हुआ था।

कुशल नाटककार भी थे विग्रहराज-चतुर्थ
विग्रहराज-चतुर्थ या वीसलदेव, चाहमान वंश के अति प्रतापी और प्रसिद्ध नरेश थे। उन्होंने चाहमानों की शक्ति में बहुत वृद्धि की तथा उसे एक साम्राज्य के रूप में परिणत करने का प्रयास किया। सन 1153 में विग्रहराज-चतुर्थ वीसलदेव शाकंभरी राज सिंहासन पर बैठे। मेवाड़ नामक स्थान से एक लेख प्राप्त हुआ था जिसमें यह जानकारी मिलती है कि विग्रहराज ने गहड़वालों से दिल्ली छीनकर अपने राज्य में मिला लिया था। परंतु कुछ इतिहासकारों का कथन है कि विग्रहराज-चतुर्थ एक वीर विजेता थे और अपनी विजय के द्वारा उन्होंने अपने राज्य की सीमा का पर्याप्त विस्तार भी किया था लेकिन विग्रहराज-चतुर्थ के दिल्ली पर विजय प्राप्त करके उसे अपने राज्य में समाहित करने के विचार से ये इतिहासकार सहमत नहीं हैं। एक बात से सभी सहमत हैं कि विग्रहराज चतुर्थ प्राचीन भारत के राजपूत राजाओं की पंक्ति में एक गौरवशाली नाम है। विग्रहराज पर ही एक एक नाटक हरिकेल अवलंबित है। वह स्वयं एक नाटककार थे, साथ ही वह विद्वानों और कवियों के आश्रयदाता भी थे। ललित विग्रहराज नाटक भी वहां के संस्कृत-विद्यालय के भग्नावशेषों पर मिला है। विग्रहराज-चतुर्थ का देहांत 1164 ई. में हुआ था।

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