महाराष्ट्र: महामारी से लड़नेवाले अस्पताल दम क्यों तोड़ रहे हैं?

महाराष्ट्र कोविड 19 संक्रमण की भयंकर पीड़ा को झेल रहा है। इसमें महानगर की सड़कों के किनारे खुले छोटे-छोटे अस्पताल अब थकते जा रहे हैं। मानव सेवा के नाम पर हर सुबह हमारा स्वास्थ्यकर्मी नई ऊर्जा के साथ काम पर लग जाता है लेकिन अब मशीनें फेल हो रही हैं। शीतलता के स्थान पर आग निकलने लगी हैं।

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महाराष्ट्र में आग अब कोविड-19 से भी घातक समस्या बन गई है। राज्य में संक्रमितों के ठीक होने की संख्या लगातार उन्नत हो रही है। लेकिन दम तोड़ते अस्पतालों का क्या किया जाए?

मुंब्रा के अस्पताल में लगी आग ने चार मरीजों की जान ले ली। इसके पहले पालघर जिले के विजय वल्लभ अस्पताल में 14 लोगों की जान चली गई। यह सिलसिला लगातार चल रहा है। यह ऐसा काल है कि कोरोना से संक्रमित जैसे-तैसे अस्पतालों में बिस्तर की व्यवस्था करके इलाज करा रहे हैं। लेकिन जाने कैसी नजर इन अस्पतालों को लग गई है कि जो बीमारी से बचने के लिए लड़ रहे थे, उन्होंने आग के कारण दम तोड़ दिया।

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क्यों आग में खाक हो रहे हैं अस्पताल?
वैसे दड़बे के समान खुले अस्पताल सामान्य बीमारियों का इलाज करने में सफल रहे हैं। तो फिर आज ये क्यों आग में खाक हो रहे हैं? क्या कोरोना काल में स्वास्थ्य तंत्र पर पड़ रहे दबाव की यह परिणति है। बहरहाल, इन आग की घटनाओं से ऐसे कई प्रश्न खड़े हुए हैं जिनका समाधान ही तय करेगा कि ये आग कब बुझेगी?

लाख टके के सवाल
इसमें से पहला प्रश्न जो मस्तिष्क में कौंधता है, वह ये है कि क्या इन अस्पतालों का सुरक्षा ऑडिट हुआ था? यदि हुआ था तो एसी की ऐसी तैसी क्यों हो रही है? आग लगने पर अग्निशमन की व्यवस्था कहां गुम जाती है? निकास की जगह क्यों संकरी रखी गई थी?अति गंभीर बीमार मरीजों के इलाज के लिए क्या ये अस्पताल सक्षम हैं? या इन्हें सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था के कम पड़ने पर कोविड 19 सेंटर बना दिया गया। यदि ऐसा है तो उनका दम तोड़ना भी बहुत स्वाभाविक है।

स्वास्थ्य तंत्र पर सवाल
महामारी काल के लिए क्या देश का स्वास्थ्य तंत्र मजबूत है? नहीं ये बिल्कुल नहीं है अन्यथा अस्पताल में भर्ती होने के लिए सीएमओ के पैर पड़ते लोग, कम पड़ती ऑक्सीजन, टूटती सांसों की परिस्थिति न होती।

सवाल ही सवाल, जवाब का पता नहीं
हमारा वर्तमान डॉक्टरों की कमी से भी जूझ रहा है। हमारे दड़बे वाले अस्पतालों में अति दक्षता कक्ष तो बना दिए गए हैं लेकिन उनमें काम करनेवाले डॉक्टर क्या उस विभाग के संचालन की शिक्षा लिए हुए हैं, इसे जानने का समय किसी के पास नहीं है। सरकारी अस्पतालों में क्या इतने इटेंन्सिविस्ट उपलब्ध हैं? ये भी विचार के योग्य है। आज जब 10 लोगों से बात करके लोग थक जाते हैं तो वहीं हमारे रेजिडेन्ट डॉक्टर्स प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में मरीजों को सरकारी अस्पतालों में देखते हैं।

गल्ती प्रबंधन की, जान गंवाए मरीज
फिर भी अस्पतालों का आग की लपटों में भस्म होना एक चिंता का विषय है। महामारी काल है, दिक्कतें हर क्षण, एक नई परीक्षा लेकर खड़ी हैं, लेकिन मानव त्रुटियों के कारण प्राण छोड़ते अपने भी स्वीकार्य नहीं हैं।

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