25 दिसंबर इसलिए भी विशेष… उस क्रांति ज्योति की अस्थियों को 67 वर्ष बाद मिली भारत की मिट्टी

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(साभार :- मंजिरी मराठे – सलाहकार संपादक, हिंदुस्तान पोस्ट)

जिस स्वातंत्र्य में भारत वंशियों ने 1947 से जीना शुरू किया उसकी अनुभूति भी कितने ही क्रांतिकारियों को प्राप्त नहीं हुई थी, तो कितने ही क्रांतिकारी जीवित रहने के बाद भी इतिहास के पन्नों के बीच गुमनामी में खो गए। क्रांति प्रणेता स्वातंत्र्यवीर सावरकर के एक निष्ठावान साथी मदनलाल धींगरा की तो अस्थियों को भी स्वातंत्रता प्राप्ति के बाद 67 वर्ष लगे, भारत भूमि की मिट्टी प्राप्त होने में। 25 दिसंबर, 1976 ही वह दिनांक है जब देश के लाल मदनलाल धींगरा की अस्थियों को गंगा में प्रवाहित किया गया।

मदनलाल धींगरा अतिसंपन्न घराने के बेटे थे। उनका जन्म 1884 में अमृतसर में हुआ था, पिता दित्तमल सिविल सर्जन थे। उनका परिवार अंग्रेज निष्ठ था। घर में मदनलाल समेत सात भाई और एक बहन थी। पिता कड़े स्वभाववाले थे, उनका कहना था कॉलेज छोड़कर व्यवसाय नहीं किया तो घर से पैसे नहीं मिलेंगे। पिता की यह नीति मदनलाल को बुरी लगती थी। उन्होंने घर से दूर लाहौर के कॉलेज में प्रवेश ले लिया। वहां उन्होंने कॉलेज छोड़कर व्यवसाय भी किया।

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अंग्रेजों के विरुद्ध उत्पन्न हुआ आक्रोश
नौकरी करते हुए मदनलाल का सामना अंग्रेज और एंग्लो इंडियन अधिकारियों से हुआ। वहां उन्हें अपमान की कुछ घटनाओं का सामना करना पड़ा, यही घटनाएं अंग्रेजों के विरुद्ध मदनलाल के मन में विरोध उत्पन्न करने में सहायक बनीं। परिवार में पिता का असंतोष बढ़ रहा था। पिता दित्तमल ने सुधार करने की आशा में मदनलाल का विवाह कर दिया, एक पुत्र प्राप्ति भी मदनलाल को हुई, परंतु उनका मन परिवार में नहीं लगा। मदनलाल ने शिक्षा प्राप्त करने के लिए इग्लैंड जाने का मन बनाया। इस उद्देश्य पूर्ति के लिए उन्होंने अमृतसर को छोड़ मुंबई की राह पकड़ ली।

अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोश प्रबल हुआ
मुंबई पहुंचकर मदनलाल ने जहाजों के इंजन में कोयला डालने का कार्य स्वीकार किया। इस कार्य में भी अंग्रेजों के गलत आचरण का सामना मदनलाल को करना पड़ा। जिससे उनके मन में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा और प्रबल हो गया।

वीर सावरकर से भेंट और अभिनव भारत से जुड़े
26 मई, 1906 को वे एस.एस मैसेडोनिया नामक जहाज से लंदन जाने के लिए निकले। उसी दिन स्वातंत्र्यवीर सावरकर भी लंदन के लिए प्रवास पर थे, परंतु उनकी यात्रा में अंतिम समय में बदलाव हुआ, और वीर सावरकर और मदनलाल धींगरा की भेंट न हो पाई। परंतु जहाज पर मदनलाल को हरनाम सिंह मिले।

बंदरगाह पर वीर सावरकर और मदनलाल की भेंट नहीं हो पाई थी, जो बाद में इंडिया हाऊस में संभव हुई। वीर सावरकर के प्रभावशाली व्यक्तित्व से मदनलाल धींगरा इस स्तर पर प्रभावित हुए कि, उन्होंने अपना ठिकाना इंडिया हाऊस को बना लिया और वे अभिनव भारत के सदस्य बन गए।

स्वतंत्रता के लिए रक्त से हस्ताक्षर, अग्नि परीक्षा और सूई गुदवाया
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए मदनलाल धींगरा ने स्वातंत्र्यवीर सावरकर का मार्ग आत्मसात कर लिया था। विश्व में नेपाल एकमात्र हिंदू राष्ट्र था, वहां के तत्कालीन प्रधानमंत्री लंदन में पधारे थे। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में समर्थन के लिए नेपाल के प्रधानमंत्री का समर्थन मांगने के लिए एक पत्र देना निश्चित हुआ था। इस पत्र पर रक्त से हस्ताक्षर करने का कार्य मदनलाल को सौंपा गया, जिसे उन्होंने अपना अंगूठा चीरकर पूर्ण किया और उस पत्र को नेपाल के प्रधानमंत्री को दिया। जिसका कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला।

इंडिया हाऊस में क्रांति प्रणेता स्वातंत्र्यवीर सावरकर बम बनाने की पुस्तक पढ़कर प्रयोग करते थे। एक बार रसायन अधिक गर्म हो गए और उसे तत्काल आग से न उतारते तो विस्फोट हो जाता और क्रांतिकारियों की सारी योजना निस्फल हो जाती, यह देखते ही मदनलाल ने अपने हाथों से तपते बर्तन को उतार दिया।

मदनलाल धींगरा की बात और आचरण को लेकर उनके मित्र हर बार हसीं उड़ाते थे। उनके द्वारा हिंदुओं की वीरता पर किये गए दावे पर मित्रों ने हसीं उड़ा दी। इस पर मदनलाल ने अपनी परीक्षा के लिए हाथों में सूई गड़ाने का आह्वान कर दिया। मित्रों ने वैसा ही किया और सूई को मदनलाल के हाथ में पूरा चुभो दिया। मित्र हार गए और मदनलाल का साहस, सहनशक्ति और प्रण जीत गया।

बाबाराव के कालापानी की सजा का ऐसे लिया बदला
लंदन के इंडिया हाऊस में स्वातंत्र्यवीर सावरकर और उनके साथी कई योजनाओं पर एक साथ कार्य कर रहे थे। इस बीच भारत में एक कविता प्रकाशित होने पर उसे राजद्रोह बताकर स्वातंत्र्यवीर सावरकर के बड़े भाई बाबाराव सावरकर को कालापनी की सजा सुना दी गई। नासिक के जिलाधिकारी जैक्सन ने बाबाराव की बारात निकाली। यह सूचना जब विलायत के इंडिया हाऊस पहुंची तो सभी क्रांतिकारी आक्रोषित हो गए।
इसका प्रतिशोध लेने के लिए क्रांतिकारियों का रक्त उबाल लेने लगा। इसमें मदनलाल धींगरा कुछ अधिक आक्रोषित हो गए। मदनलाल धींगरा इसका प्रतिशोध लेने के लिए लॉर्ड कर्जन वायली और लेफ्टिनेन्ट गवर्नर बैम्फिल्ड फुल्लर को भाषण के बीच गोली मारने के लिए पहुंचे, लेकिन सभागृह का दरवाजा बंद हो जाने के कारण उन्हें बैरंग लौटना पड़ा। इसके बाद 20 जून को हुई फ्री इंडिया सोसायटी की बैठक में बाबाराव सावरकर की सजा का प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा ली गई।

1 जुलाई को मदनलाल धींगरा काला कोट पहनकर उसमें दो पिस्तौल, कटार छुपाकर इम्पीरियल इन्स्टिट्यूट पहुंचे। कार्यक्रम चल रहा था, वहां मदनलाल सहजता से विचरण करते रहे। रात लगभग 11 बजे कार्यक्रम समाप्ति के पश्चात सभी घर जाने लगे। इसी बीच मदनलाल धींगरा ने पास से कर्जन वायली के चेहरे पर गोलियां दाग दीं। वायली के गिरने के बाद दो गोलियां और दागी गईं। इस बीच उन्हें बचाने के लिए दौड़े पारसी डॉक्टर लालकाका को भी मदनलाल ने गोली मार दी। इसके बाद छठवीं गोली अपने ऊपर दागी, लेकिन वह सफल नहीं हो पाए, जिसके बाद पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया।

वीर सावरकर से व्यक्त की ये अंतिम इच्छा
स्वातंत्र्यवीर सावरकर चाहते थे कि, मदनलाला धींगरा अपने लिए वकील नियुक्ति के लिए सहमत हों। कारागृह में वीर सावरकर और मदनलाल धींगरा के बीच लंबी बात हुई, लेकिन धींगरा अपने निर्णय पर अडिग रहे। उन्होंने, स्वातंत्र्यवीर सावरकर से अपने मन की बात साझा की।

मदनलाल धींगरा ने कहा, मेरी अंतिम क्रिया हिंदू रीति से की जाए। मेरे शव को कोई अहिंदू या मेरे भाइयों द्वारा न छुआ जाए। मेरे पार्थिव शरीर को कोई ब्राम्हण मुखाग्नि दे। मेरे कमरे के कपड़े, पुस्तकों की नीलामी करके उनसे मिलनेवाले पैसे राष्ट्रीय निधि में जमा करा दें।

परिवार ने संबंध तोड़ा, स्वस्फूर्त स्वीकार ली मृत्यु
कर्जन वायली के वध में गिरफ्तार मदनलाल धींगरा से उनके परिवार ने सभी संबंध तोड़ लिये। उनके कार्य का धिक्कार करनेवाला पत्र अंग्रेजों को परिवार ने भेजा। इसकी परिणति ये हुई की, परिवार द्वारा नियुक्त वकील को मदनलाल धींगरा ने अस्वीकार कर दिया और भाई से भेंट करने के प्रयत्न को भी नकार दिया।

सुनवाई के दौरान मदनलाल धींगरा ने न्यायालय में अपना प्रकरण प्रस्तुत करने के लिए किये जा रहे प्रयत्नों को कोई विशेष समर्थन नहीं दिया। जिसके कारण दादासाहेब खापर्डे जैसे अनेकों क्रांति अनुयायियों के प्रयत्न सफल नहीं हो पा रहे थे। 10 जुलाई, 1909 को वायली वध प्रकरण की प्राथमिक सुनवाई हुई। इसके पश्चात 23 जुलाई से अभियोग की शुरुवात हुए। इसमें जब न्यायालय ने मदनलाल को अपना पक्ष रखने के लिए कहा तो उन्होंने अपने जब्त किये गए पत्र को न्यायालय में पढ़ने का आग्रह किया। जिसे अंग्रेजों ने नहीं माना। इसके उलट न्यायाधीशों ने पूछा कि, तुम्हें फांसी की सजा क्यों न दी जाए? इस पर मदनलाल धींगरा ने कहा,

मैं आपकी सत्ता को मानता ही नहीं, तुम क्या सजा दोगे इसकी मुझे चिंता नहीं है। लेकिन ध्यान रखो, एक दिन हम सर्वशक्तिमान होंगे और हमें जो चाहिये वह हम प्राप्त कर लेंगे। 

17 अगस्त, 1909 को सुबह मदनलाल धींगरा ने स्वतंत्र भारत की कामना के साथ अपने प्राणों को अर्पण कर दिया।

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