ऐसे तो नहीं रुकेगा कोरोना!

मेरी मां गांव से आते ही बुखार से ग्रसित हो गई। उसे अचानक सांस लेने में परेशानी होने लगी। रात होने के साथ उसकी स्थिति बहुत बिगड़ गई। उस दिन 17 नवंबर दिन मंगलवार था। हम मां को उठाकर पास के कूपर अस्पताल ले गए।

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वह रात जागते ही बीती। न आंखों में नींद, न मन स्थिर, सारी रात आईसीयू के बाहर बैठे-बैठे बस अंदर से आनेवाले स्वास्थ्य कर्मियों की आवाजाही देखता रहा। जाने कब आवाज दे दें। मेरी जन्मदात्री वेंटिलेटर पर थी। उसकी सांसें मशीनों के हवाले थीं। उसका जीवन महामारी से युद्ध छेड़े हुए था जबकि बाहर मैं मन के अंतरद्वंदों में फंसा था। कोरोना वॉर्ड के बाहर न पीपीई किट, न सेनिटाइजर.. मरीज डॉक्टरों के हवाले और परिजन ईश्वर के…

मेरी मां गांव से आते ही बुखार से ग्रसित हो गई। उसे अचानक सांस लेने में परेशानी होने लगी। रात होने के साथ उसकी स्थिति बहुत बिगड़ गई। उस दिन 17 नवंबर दिन मंगलवार था। हम मां को उठाकर पास के कूपर अस्पताल ले गए। डॉक्टरों ने तत्काल मां का परीक्षण किया। उन्हें मां के अंदर कोरोना के लक्षण लग रहे थे। इसलिए कोरोना विभाग के विलगीकरण वॉर्ड में भर्ती कर लिया गया। मेरे लिए ये दोहरी मार थी। चार महीने पहले मैं कोरोना संक्रमण झेल चुका था।

एक बीमार, खतरे में परिवार

अस्पताल में भर्ती होने के साथ ही कह दिया गया कि मरीज की देखभाल के लिए परिवार के एक सदस्य को पास में रहना होगा। पूरा वॉर्ड कोरोना संशयित मरीजों से भरा था। जितने मरीज उतने ही उनके परिवार के सदस्य। मास्क के अलावा परिजनों के पास संक्रमण से बचने का कोई उपाय नहीं था। उस दिन बहन रुक गई और दूसरे दिन मैं अस्पताल में रुका। दो दिन बाद मां की स्वैब टेस्ट की रिपोर्ट आई जिसमें मां कोरोना पॉजिटिव संक्रमित निकली। इस बीच उसकी स्थिति बिगड़ती चली गई। 19 की दोपहर उसे आईसीयू में स्थानांतरित करना पड़ा।

डॉक्टर करे इलाज, परिजन करें देखभाल

अस्पताल का यह नियम कि कोरोना संक्रमित व्यक्ति के परिजन देखभाल करेंगे, इससे स्वास्थ्य कर्मियों की टेंशन और भागदौड़ कम हो गई थी लेकिन परिजनों की टेंशन कई गुना बढ़ गई थी। आईसीयू में भर्ती मरीजों को रक्त जांच, सीटी स्कैन आदि के लिए ले जाने की जिम्मेदारी परिजनों के ऊपर थी। स्वास्थ्य कर्मी पीपीई किट में सुरक्षित थे। लेकिन परिजन यहां भी मास्क के सहारे संक्रमण से बचने की जंग लड़ रहे थे। जहां सुरक्षा के लिहाज कोरोना मरीजों से परिजनों को बहुत दूर रखने का नियम हैं, वहां कोरोना पॉजिटिव और निगेटिव के बीच सिर्फ एक दीवार ही थी,जो सुरक्षित और असुरक्षित की लक्ष्मण रेखा बनी खड़ी थी। बहरहाल, यहां दिन-रात एक जैसी हलचल थी। सभी मरीजों के परिजन परेशान। रोना-पीटना हमेशा लगा रहता था। अंदर से कब आवाज आ जाए, इसको लेकर सभी की चिंता चेहरे पर दिखती थी। स्वास्थ्य कर्मी की हर आवाजाही से दिल धकधक होने लगता था। 19 नवंबर की रात जागते बीती। सबेरे बहन आ गई। कुछ देर के लिए मैं घर आया और स्नान करके फिर अस्पताल पहुंच गया। इस बीच सूचना मिलती रही कि मां की तबीयत ज्यादा खराब हो गई है। वो वेंटिलेटर सपोर्ट पर चली गई थी। अब परिवार में भी सभी की आंखें ज्यादा बोल रही थीं। 20 तारीख का दिन बीता। डॉक्टर बताते रहे कि मामला बहुत सीरियस है। आखिरकार रात 2 बजे अंदर से स्वास्थ्य कर्मी बाहर आया और उसने बताया कि मां जिंदगी की जंग हार गई। हमें परेशानियों से बाहर निकालनेवाली वैतरणी निष्प्राण हो गई।

जिंदा खतरे में, लाशों की नियमावली

मां तीन दिनों की लंबी जंग के बाद काया छोड़ चुकी थी। परिवार शोक में था। सभी के सभी कोरोना के संक्रमण को लेकर भी चिंता में थे। मां के साथ रहने के कारण कौन कोरोना संक्रमित हुआ हो, पता नहीं। आईसीयू से एक महिला कर्मी मृत्यु पंजीकरण के लिए फाइल लेकर गई, मैं भी साथ था। वहां कोरोना वॉर्ड की फाइल बगैर सेनिटाइज किये, दस्ताने बगैर मेरे हाथ और स्वास्थ्य कर्मियों के हाथ घूम रही थी। जिस बीमारी ने अमेरिका जैसे सुविधा संपन्न देश को झुका दिया, उससे कूपर अस्पताल बिल्कुल नहीं डरता। पीपीई किट आईसीयू के स्वास्थ्य कर्मियों तक ही सीमित था। उसके अलावा कर्मचारी मास्क और दस्ताने से कोरोना संक्रमण से लड़ रहे थे तो संक्रमितों के परिजन मास्क लगाकर ईश्वर के भरोसे थे।
बहरहाल, मां का शव सैफ्टी बैग में पैक हो चुका था। हमें कहा गया रात में ही लेकर जाईये। सुबह चार बजे हम एंब्यूलेंस से अंत्येष्टी के लिए निकले। मां का अंतिम दर्शन प्लास्टिक की पन्नियों में लिपटे रूप में ही हो पाया। विद्युत शव दाहिनी पर मां की अंत्येष्टी हुई। आंखों में अश्रू लिये पिता जी को संभाल रहे थे कि एंबुलेंस का चालक आया, बोला साहेब कुछ पैसे तो दो…. मैंने जेब में हाथ डाला और जो मिला उसे निकाला तो वे बोला, साहेब थोड़ा और कर दो… आपकी मां का वजन बहुत था,चार लोगों को उठाना पड़ा…

 

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