विजय सिंगल
Bhagavad Geeta: भगवद् गीता में न केवल मानव जाति की एकता पर बल दिया गया है , बल्कि समस्त जीवन की अखंडता का दर्शन भी प्रस्तुत किया गया है । सभी जीवों और वस्तुओं का आधार एक ही है।
समस्त जीवों का पालनहार
परब्रह्म (परमात्मा का वर्णन करते हुए श्लोक संख्या 13.17 में कहा गया है कि अविभाज्य होते हुए भी परमात्मा भिन्न- भिन्न जीवों में विभाजित हुआ प्रतीत होता है। वह समस्त जीवों का पालन करने वाला, संहार करने वाला, और फिर में उत्पन्न करने वाला है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सभी प्राणी परमात्मा में ही स्थित है। सभी उसी से उत्पन्न होते हैं और उसके द्वारा ही पोषित होते हैं और अंत में उसी में समा जाते है । उससे अलग किसी का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता ।
प्राणियों की बहुलता में विभाजित दिखने के बावजूद परमात्मा एक अभिन्न और अविभाजित वास्तविकता है। वह सभी जीवों का मूल तत्व है। इस प्रकार सभी प्राणियों की एकता ही सत्य है और दृश्यमान बहुलता उस शाश्वत सत्य की अभिव्यक्ति है।
जीवन प्रवाह की एकात्मता के दर्शन
श्लोक संख्या 13.31 में जीवन प्रवाह की एकात्मता को फिर से दर्शाया गया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब मनुष्य पृथक- पृथक जीवों को एक ही परमात्मा में स्थित देखता है और उसी परमात्मा से ही सभी जीवों का विस्तार सब और फैले हुए, देखता है, उस समय वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में जब कोई व्यक्ति यह समय जाता है कि परमात्मा प्रत्येक जीव में जीवात्मा के रूप में सदैव मौजूद रहता है तो वह परम पिता परमेश्वर के साथ एकाकार हो जाता है । तब वह परम सत्य के वास्तविक स्वरूप अर्थात शाश्वत आनन्द का अनुभव करता है।
प्राणियों की उत्पत्ति और अंत का विश्लेषण
7.4 से 7.6 तक के सभी प्राणियों की उत्पत्ति और अंत का विश्लेषण किया गया है। जैसा कि इन श्लोकों में वर्णित है, ईश्वर की दो प्रकार की प्रकृतियाँ होती है, भौतिक प्रकृति और चेतन प्रकृति प्रत्येक व्यक्ति इन दो स्वभावों में जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है।ईश्वर की उपर्युक्त प्रकृति के अनुरूप प्रत्येक मनुष्य के जीवन में दो पहलू होते हैं । एक मन और शरीर तथा दूसरा आत्मा । यह दोनों ईश्वर से ही उत्पन्न हुए है । । इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि सभी का स्त्रोत और गंतव्य एक ही है।
जीवन की सम्पूर्ण धारा की समानता के दर्शन
श्लोक संख्या 5.18 में भी जीवन की सम्पूर्ण धारा की समानता को स्पष्ट रूप से समझाया गया है। इसमें कहा गया है कि ज्ञानीजन , एक विद्वान और विनम्र ब्राह्मण, एक गांय, एक हाथी, एक कुत्ता या चांडाल को समान दृष्टि से देखते हैं। दूसरे शब्दों में, ज्ञान से संपन्न व्यक्ति यह जानता है कि सब प्राणियों की शाश्वत और अपरिवर्तनीय वास्तविकता एक ही
है। अतः ऊँच नीच, यहाँ तक कि मनुष्य और पशु के बीच के सभी भेद मिट जाते हैं। ऐसा ज्ञानी पुरुष सभी को समदृष्टि यानि समान रूप से देखता है।
श्लोक संख्या 6.29 में भी जीवन के विभिन्न रूपों की एकता पर बल दिया गया है। वहाँ कहा गया है कि जिस मनुष्य की आत्मा योग से युक्त है, वह आत्मा को सब प्राणियों में व्याप्त और सब प्राणियों को आत्मा में स्थित देखता है। वह सब को समभाव से देखता है। सरल शब्दों में कहें तो ज्ञानी पुरुष जानता है कि वही आत्मा उसमें और बाकि सभी में निवास करती है। वह संपूर्ण जीवन की धारा के साथ एक हो जाता है।
सभी वस्तुओं की एकरूपता
जीवन के पूरे प्रवाह की एकात्मता ही नहीं अपितु श्रीकृष्ण ने सभी वस्तुओं की एकरूपता को भी प्रकट किया है। श्लोक संख्या 6.30 में कहा गया है कि जो ईश्वर को सभी जगह देखता है और प्रत्येक वस्तु को ईश्वर में देखता है, उसके लिए न तो ईश्वर कभी दूर होता है और न ही वह ईश्वर से कभी दूर होता है। यह श्लोक सर्वव्यापी ईश्वर में सब कुछ की गहरी एकता पर जोर देता है। परमात्मा उन लोगों के दिलों में सदा स्थापित रहता है जिनको उसके साथ अपनी एकात्मकता का एहसास सदैव रहता है।
सभी प्राणियों की समानता के ज्ञान
सभी प्राणियों की समानता के ज्ञान को ही भगवद् गीता में सच्चा ज्ञान घोषित किया गया है। श्लोक संख्या 18. 20 में कहा गया है कि वो ज्ञान जिससे मनुष्य अनन्त रूपों में विभाजित दिखने वाले समस्त जीवों में एक ही अविभाजित और अविनाशी स्वरूप को देखता है, ऐसा ज्ञान सात्विक ज्ञान कहलाता है।
प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा का अभिन्न अंग
मनुष्य जब अज्ञान रूपी अंधकार से मुक्त हो जाता है, तब उसको ज्ञान का सच्चा प्रकाश प्राप्त होता है। तब वह जान जाता है कि प्रत्येक जीवात्मा उसी तरह से परमात्मा का एक अभिन्न अंग है जैसे हर एक लहर समुद्र का एक अविभाज्य हिस्सा होती है। सृष्टि की बहुलता में अंतर्निहित एकता उस पर प्रकट हो जाती है। वह विभाजित में अविभाजित को देखता है और सारी उत्पत्ति के एक होने का एहसास करता है। तब वह सभी को परमात्मा में और परमात्मा में सभी को देखने में सक्षम हो जाता है।
सृष्टि की बहुलता, वास्तव में ईश्वर की भौतिक प्रकृति की अभिव्यक्ति
परन्तु सृष्टि की अंतर्निहित एकता को पहचानने का मतलब हमारे अनुभव की दुनिया को नकारना नहीं है। असंख्य भेदों वाली इस भौतिक दुनिया को नकारा नहीं जा सकता है और न ही इसे नकारा जाना चाहिए, क्योंकि यह कोई भ्रम नहीं है। सृष्टि की बहुलता, वास्तव में ईश्वर की भौतिक प्रकृति की अभिव्यक्ति है। लेकिन साथ ही यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सभी की अन्तिम वास्तविकता एक ही है। परमात्मा सभी प्राणियों में समान रूप में विद्यमान है।
सभी प्राणी ईश्वर की कृपा से ही पनपते हैं
जब मनुष्य यह समझ जाता है कि सभी प्राणी ईश्वर की कृपा से ही पनपते हैं, तो वह अधिक मानवीय हो जाता है। ऐसा दृष्टिकोण विकसित होने पर व्यक्ति सभी प्रकार की सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में पूरी तरह से संलग्न होने पर भी एक सन्यासी ही होता है।