वीर सावरकर ‘हिंदू हृदयसम्राट’ ही नहीं ‘हिंदुत्व’ के निर्माता थे – डॉ.नीरज देव

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स्वातंत्र्यवीर सावरकर सामाजिक क्रांतिकारी नहीं थे बल्कि सामाजिक क्रांति के प्रणेता थे। उनके विचारों में विज्ञान निष्ठा है। वे धर्म ग्रंथों को नहीं मानते थे लेकिन सभी धर्म ग्रंथों का आदर करते रहे। वे बुद्धिवादी, राष्ट्रवादी सुधारकों के अलावा विवेकी सुधारक थे। वे जातिपांति उच्चाटन के प्रणेता थे। वे क्रांतिकारियों की पंक्ति में सबसे उच्च स्थान पर हैं और सामाजिक क्रांति के प्रणेता भी थे। वीर सावरकर बुहमुखी प्रतिभा के धनी थे।

वीर सावरकर को कहा जाता है कि वे क्रांतिकारी थे, लेकिन डॉ.नीरज देव बताते हैं कि वीर सावरकर विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। वे क्रांतिकारियों में पूर्वकाल के क्रांतिकारी और वीर सावरकर के पश्चात आए क्रांतिकारी दोनो में ही उनका स्थान उच्च था। इसी प्रकार वीर सावरकर का कार्य एक समाज सुधारक या समाज क्रांतिकारी तक ही सीमित नहीं था, वे सामाजिक क्रांति के प्रणेता थे। वीर सावरकर का विचार था कि कोई भी धर्म अपरिवर्तनीय नहीं है। लेकिन विज्ञान ही सभी धर्मों का मूल होना चाहिए। उन्होंने विज्ञान आधारित धर्म का समर्थन किया था। यही धर्म वीर सावरकर को सनातन बना देता है। वीर सावरकर के सनातन का अर्थ है, चिरंतन और नित्य नूतन।

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सावरकर बहुआयामी
एक ही आयाम व्यक्ति को महापुरुष की श्रेणी तक ले जाता है, लेकिन वीर सावरकर का जीवन बहुआयामी है। सावरकर जाने जाते हैं सशस्त्र क्रांति के लिए, लेकिन सशस्त्र क्रांतिकारियों में सावरकर का स्थान अनूठा और अद्भुद है। आदि क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फडके को लेकर हम देखें तो अंतिम क्रांतिकारी तक वीर सावरकर उन सभी से अलग थे। वीर सावरकर तत्वदर्शी क्रांतिकारी थे। सावरकर ने मात्र क्रांतिकार्य ही नहीं किया, उन्होंने क्रांतिकारियों को तत्वज्ञान दिया। उन्होंने जेसेफ मैजिनी और 1857 की क्रांति पर दो अद्भुद ग्रंथ लिखे। जोसेफ मैजिनी पर लिखे ग्रंथ में वीर सावरकर की 36 पृष्ठों की प्रस्तावना बहुत उच्च कोटि की थी। उसमें क्रांतिकार्यों की रूपरेखा थी। 1857 का स्वातंत्र समर ग्रंथ पचास वर्षों में क्रांति कार्यों को लेकर एक परंपरा स्थापित करता है। ऐसा कहा जाता है कि हजारो-हजारो क्रांतिकारी इस ग्रंथ ने प्रदान किये।

एक हजार साल बाद कोई वीर सावरकर पर कुछ लिखेगा तो संभ्रम में आ जाएगा कि ये सभी एक ही सावरकर हैं या अलग-अलग सावरकर हैं। जिसमें उन्होंने अलग-अलग कार्य किया। वीर सावरकर के कार्यों में बहुत सारे आयाम हैं। वीर सावरकर के समाज सुधार या क्रांतिकार्य में बड़ा अंतर है और वो है समाजक्रांति के मूल आधार का। वीर सावरकर के समाज क्रांति का मूल आधार था कि वे किसी भी धर्म ग्रंथ को नहीं मानते बल्कि विज्ञान ग्रंथ को मानते थें।

ऐटली का कथन वीर सावरकर के कार्यों का प्रमाण पत्र
वीर सावरकर का क्रांतिकार्य कालापानी के बाद समाप्त नहीं हुआ। उसके बाद भी शुरू रहा। इंडियन इंडिपेंडेन्स ऐक्ट में ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने कहा कि हम ये स्वाधीनता प्रदान कर रहे हैं उसके दो कारण हैं। पहला ये है कि, भारतीय सेना अंग्रेजों के लिए अब विश्वासार्ह्य नहीं रही और दूसरा, विद्रोह करके खड़े हुए सैनिकों पर काबू पाने के लिए हमारे पास बल नहीं है। यह वीर सावरकर के सशस्त्र क्रांति को ऐटली दिया गया यह प्रमाण पत्र था।

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सशस्त्र क्रांतिकारी के साथ हिंदुत्वावादी भी
वीर सावरकर मात्र हिंदू हृदय सम्राट ही नहीं थे बल्कि उन्होंने हिंदूत्व का निर्माण भी किया था। उनके हिंदुत्व का दो आधार था। एक दृष्टि से देखा जाए तो वो भौगोलिक क्षेत्र पर था, दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो वे यवादी हिंदुत्व था। उसमें दो ही बातों का वर्णन है यदि आपकी पितृ भू और पुण्य भू यदि भारत है तो आप हिंदू हैं। इस प्रकार के विचारों को प्रकट करना सावरकर के विचारों का परिचायक था।

सावरकर साहित्यकार भी
वीर सावरकर अनूठे साहित्यकार भी थे। साहित्यकार कहानियां नहीं लिखता, जो कहानियां लिखता है वो चरित्र नहीं लिखता, जो चरित्र लिख पाता है वो आत्मचरित्र नहीं लिखता, जो आत्मचरित्र लिख पाता है वो निबंध, लेख नहीं लिख पाता। वीर सावरकर प्रबंधकार, निबंधकार और उपन्यासकार भी हैं। इसके अलावा सावरकर कवि भी हैं। उनकी कविताओं में स्तोत्र है, पौवाडा, पादशाही है। वे उच्च कोटि के साहित्यकार थे, यदि वे मात्र साहित्यकार ही होते तो विश्व को हिलाने की शक्ति उनकी लेखनी में थी। बालदास हरदास कहतें हैं सावरकर एक दृष्टा साहित्यकार थे। दृष्टा साहित्यकार वो होता है जो भविष्य को पहचानता है।

सावरकर व्यख्याता भी 
वीर सावरकर साहित्यकार के अलावा एक उत्कृष्ट व्याख्याता भी थे। डॉ.आसफ अली के अनुसार उन्हें विश्व के सबसे अच्छे व्याख्याता को सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने लिखा है कि मैंने सभी प्रसिद्ध व्याख्याताओं का व्याख्यान सुना, क्रमांक एक व्याख्याताओं को सुनने का अवसर मिला लेकिन मैंने उन्हें सुना नहीं, क्योंकि मैंने सावरकर को सुना।

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सावरकर का आधार विज्ञान निष्ठ
सावरकर जाति निष्ठा को बदलना नहीं चाहते थे बल्कि, सावरकर जाति व्यवस्था को ही उखाड़ फेंकना चाहते थे। सावरकर समाज की नींव को ही बदलना चाहते थे। सावरकर बचपन से ही सुधारक थे। सामाजिक कुरीतियों को लेकर वीर सावरकर का विचार बचपन से दृढ़ था। इसका उदाहरण 1902 में मिलता है। जब मात्र उन्नीस वर्ष की आयु में उन्होंने एक कविता लिखी थी। जो बाल विधवाओं की पीड़ा को प्रकट करती है। वे बचपन से ही सुधारवादी थे।

धर्म ग्रंथों को नहीं मानते थे
वे विज्ञाननिष्ठ धर्म को मानते थे और इसी को लोगों में प्रचारित करते थे। वे किसी धर्म ग्रंथ को नहीं मानते थे, बल्कि सभी धर्मों का आदर करते थे। सामाजिक क्रांति का उनका मूल आधार विज्ञाननिष्ठ था। वीर सावरकर जातिपांति में सुधार नहीं चाहते थे बल्कि जाति उच्चाटन की बात करते थे। वीर सावरकर समाज की नींव को ही बदलना चाहते थे।

छुआछूत को त्याग चुके थे सावरकर
छुआछूत की बीमारी सावरकर ने बाल्यकाल में ही त्याग दी थी। उन्होंने क्रांति का प्रचार शुरू किया तो उसमें सभी जाति और धर्म के लोगों को शामिल किया। वीर सावरकर लंदन में युवाओं को इकट्ठा करके भारत की स्वतंत्रता के कार्य के लिए प्रेरित करते थे। बाद में यह लोग मुस्लिम लीग में सम्मिलित हो गए।

सावरकर थे विवेकी सुधारक
हम जनहित चाहतें है और जनहित ज्ञानस्तुति से चाहते हैं। जनहित, मानवता से, बंधुता से, विज्ञान निष्ठा से वीर सावरकर करना चाहते थे। जो सुधारक हुए हैं उनमें वर्ण किये जाते हैं। एक बुद्धिवादी विचार के दूसरे राष्ट्रवादी विचार के थे। बुद्धिवादी विचारों में फुले, डॉ.आंबेडकर, आगरकर शामिल थे, जबकि राष्ट्रवादी विचारों में विवेकानंद, अरबिंदो थे। सावरकर ने राष्ट्रवादी विचारों को लेकर जो शुद्धि बंदी और वेदोक्त बंदी की बातें उठाई हैं और बुद्धिवादी विचारों के अंतर्गत उच्च कोटि की बातें उठाई थीं। इसलिए सावरकर विवेकी सुधारक थे। विवेकी सावरकर कहते थे कि हमें अंधश्रद्धा को दबाना चाहिए। क्रोध से नहीं, जन्म से नहीं, मजाक से नहीं, द्वेष से तो बिल्कुल भी नहीं। अपने राष्ट्र में विज्ञान के माध्यम से सुधार लाना हमरा कर्तव्य है।

साहित्य रचना से एकता का सूत्र
वैचारिक साहित्य के माध्यम से सावरकर ने एक बुद्धि को साहित्य के माध्यम से झकझोरा और दूसरा बुद्धि को भावना से ऊपर उठाया। जाति प्रथा के उच्चाटन के लिए सावरकर ने वज्र सूची का आधार लिया। सावरकर कहते हैं जाति भेद यदि जन्म से होते तो पैदा होनेवाले व्यक्ति भी अलग-अलग होते। जैसे ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र यदि जन्म से होते तो अलग-अलग होते। यदि उनके कान, नाक, पैर, हाथ यदि सब एक ही हैं तो उसका अर्थ है कि सब एक ही हैं।

सावरकर ने हिंदू समाज की बेड़ियों को तोड़ने के लिए कार्य किया। उनकी दृष्टि में वेदों की अहमियत पांच हजार साल पुराने ग्रंथ के रूप में थी। वे वेदोक्त बंदी का आह्वान करते हैं। चार वर्णों की अलग-अलग जातियां थीं, कार्यों के आधार पर जातियां थीं। वीर सावरकर ने उसे तोड़ा। जैसे बैंड बजाना मुस्लिमों का काम था उसके लिए उन्होंने महार लोगों तैयार किया। सप्त बंदी को तोड़ने का उन्होंने कार्य किया।

मुसलमानों से कहा विज्ञाननिष्ठ बनो
मुसलमान और ईसाइयों में लंबे समय तक विरोधाभास चला। लेकिन जैसे ही ईसाई लोगों ने बाइबिल को बंद किया और विज्ञान को अपनाया वे जीत गए। मुसलमानों को भी कुरान को बंद करना होगा।

जातिगत आरक्षण का विरोध
वीर सावरकर जाति आधारित बंटवारे का विरोध करते थे। उनके अनुसार आरक्षण यदि आर्थिक आधार पर दिया जाता तो उचित होता। जातिगत आरक्षण के कारण जातियां और पक्की हो गईं। वे एकमात्र समाज क्रांतिकारी थे जिन्हें धर्म की आवश्यकती ही नहीं थी।

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