पराक्रम की पराकाष्ठा थी स्वातंत्र्यवीर सावरकर की मार्सेलिस समुद्र में छलांग

स्वातंत्र्यवीर सावरकर वह धधकती ज्वाला थे, जिसके समक्ष अंग्रेज सभी मोर्चे पर असफल ही रहे। प्रखर राष्ट्र प्रेम ही था कि, अथाह सागर भी वीर सावरकर के हौसले के समक्ष बौना हो गया। दोहरे कालापानी की सजा प्रबल इच्छा शक्ति को डिगा न पाई।

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स्वातंत्र्यवीर सावरकर की राष्ट्र निष्ठा के आगे अंग्रेजों का छल, बल सब नाकाम था। वीर सावरकर विदेश में रहने के बाद भी भारत के लिए सतत कार्यरत् थे, उनके द्वारा निर्मित भारत के पहले ध्वज को मादामा कामा द्वारा अंतरराष्ट्रीय समाजवादी परिषद में फहराना, वीर सावरकर से प्रेरित होकर आबा दरेकर की राष्ट्र प्रेम की कविताओं का भारत में विद्रोह की बांग फूंकना और मदनलाल धींगरा के लिखित बयान को अमेरिका और इंग्लैंड के समाचार पत्रों में छपवाना ऐसे कार्य थे, जिनसे अंग्रेजी सत्ता हिल गई थी। इस बीच कर्णावती में लॉर्ड मिंटो पर बम फेंकने के प्रयत्न में नारायण सावरकर की गिरफ्तारी ने वीर सावरकर के लिए कठिनाइयां खड़ी कर दी। वीर सावरकर भारत भवन छोड़कर ब्रायटन चले गए।

मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए व्याकुलता
अंग्रेजों के साथ दो-दो हाथ करने के लिए विचारों के साथ ही शस्त्र का होना भी जरुरी है। इस सच्चाई को समझते हुए वीर सावरकर ने विदेश से बम बनाने की तकनीकी सीख ली। उसके बाद उन्होंने उस तकनीकी तथा 22 ब्राऊनिंग पिस्तौल को पुस्तक में छिपाकर चतुर्भुज अमीन के द्वारा भारत में भेजा। उसी में से एक पिस्तौल का उपयोग कर एक देशभक्त युवक अनंत कान्हेरे ने नाशिक के कलेक्टर जैक्सन को मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकरण में अनंत कान्हेरे के साथ ही कृष्णाजी कर्वे और विनायक देशपांडे को फांसी की सजा दी गई। चूंकि ये पिस्तौल वीर सावरकर ने भेजी थी, इस कारण लंदन में उन्हें पकड़ लिया गया और ब्रिक्स्टन की जेल में डाल दिया गया।

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अदम्य साहस का वह क्षण
वीर सावरकर के सहयोगी मिलने जाते थे। (इसी कारागृह में वीर सावरकर ने हृदयस्पर्शी पत्र और “माझे मृत्यु पत्र” नामक कविता की रचना की) उनके साथी चाहते थे कि इस मामले में उनपर लंदन में ही अभियोग चलाया जाए। इस बीच उन्होंने वीर सावरकर को कारागृ्ह से भगाने की योजना भी बनाई, लेकिन इसमें वे असफल रहे। हालांकि वीर सावरकर की योजना कुछ और थी। उन्होंने इतना ही कहा, “हिंदुस्थान की यात्रा में अलग-अलग बंदरगाहों पर जहाज रुकेगा।”… और इसी योजना के चलते पुलिस की पहरेदारी को चुनौती देते हुए 8 जुलाई 1910 को मार्से किनारे पर अथाह समुद्र में कूद पड़े। वे तैरते हुए फ्रांस के किनारे पहुंचे। लेकिन उनके साथी तब तक उन्हें लेने वहां पहुंच नहीं पाए और वीर सावरकर की यह योजना असफल साबित हुई। उनका मानना था कि फ्रांस की भूमि पर अंग्रेज उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पाएंगे लेकिन उनकी यह सोच गलत साबित हुई और उन्हें पकड़ लिया गया।

अंग्रेजों का छल
अंग्रेजों ने वीर सावरकर की समुद्र में छलांग और फ्रांस की धरती से उन्हें अंतरराष्ट्रीय नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए गिरफ्तारी को छिपाने की कोशिश की। लेकिन वीर सावरकर के साथियों ने फ्रांस की धरती पर वीर सावरकर को पकड़े जाने का मुद्दा उठाया और पूरे विश्व में इसे प्रचारित कर दिया। इसके बाद विश्व के कई समाचार पत्रों और राजनेताओं ने फ्रांस और इंग्लैंड की जमकर आलोचना की। अपनी बदनामी होते देख फ्रांस ने ब्रिटेन से वीर सावरकर की हिरासत की मांग की। दोनों देशों ने मिलकर सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा चलाने का आदेश जारी किया।

क्रांति शिरोमणि को दे दी दोहरे कालापानी की सजा
अंग्रेज किसी भी कीमत पर वीर सावरकर को मुक्त नहीं करना चाहते थे। इसीलिए उन्हें दो बार आजीवन कारावास यानी 50 साल कालापानी की सजा सुनाई गई। यही नहीं, सावरकर परिवार का सबकुछ जब्त कर लिया गया। परिवार के तीनों ही पुरुषों को जेल में डाल दिया गया और घर की महिलाएं सड़क पर आ गईं। लेकिन वीर सावरकर के साथ ही उनके देशभक्त परिवार के सदस्यों को इसका जरा भी रंज नहीं था। क्योंकि वीर सावरकर के ही वाक्य थे, “कि घेतले व्रत न हे आम्ही अंधतेने, लब्धप्रकाश इतिहास निसर्गमाने, जे दिव्य दाहक म्हणुनि असावयाचे बुद्ध्याची वाण धरिले करि हे सतीचे।”

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