भारत के महानतम् योद्धा वीर सावरकर ने इसलिए कर दिया ‘आत्मार्पण’

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स्वातंत्र्यवीर सावरकर का जीवन भारत भूमि की स्वतंत्रता, उसकी रक्षा, समग्र विकास, सामाजिक समानता, हिंदुत्व की रक्षा और भारत को विश्व गुरु बनाने के लिए संकल्पित रहा। इसका प्रारंभ ग्यारह वर्ष की आयु से हुआ, उनका रुझान स्वतंत्रता आंदोलन में हुआ और वे किशोरावस्था में ही युवा वर्ग में अंग्रेजों के अन्याय के विरुद्ध विद्रोह को गति देने लगे। यह कार्य ग्यारह वर्ष की आयु से प्रारंभ होकर 83 वर्ष की आयु तक चला।

स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने ‘काल’ के अध्ययन से क्रांति की प्रेरणा ली, इससे उनकी आत्मा में तत्कालीन अंग्रेज शासन के विरुद्ध विद्रोह का निर्माण हुआ और उन्होंने मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में स्वदेशी भावना को प्रेरणा देने के लिए मराठी लोक साहित्य (फटका) का लेखन किया। इसके बाद दृढ़ निश्चयी और राष्ट्र के प्रति समर्पित उनका मन काया के आत्मार्पण तक उसी के लिये धधकता रहा।

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स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने ग्यारह वर्ष की आयु से राष्ट्र के लिए क्रांति की जो गति ली, वह उनके जीवन की अंतिम सांस तक गतिमान रही। जिसमें कुछ का उल्लेख आवश्यक है…

  • पंद्रह वर्ष की आयु में क्रांति की शपथ और भारत की सशस्त्र क्रांति को नई ऊर्जा दी
  • किशोरावस्था में ‘मित्र मेला’ नामक गुप्त संगठन की स्थापना, जिसने अंग्रेजों के अन्याय के विरोध को प्रबल कर दिया
  • 1857 के समर को राष्ट्र का पहला स्वातंत्र्य समर साबित करनेवाले एकमात्र क्रांति प्रणेता
  • पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों की दमनकारी नीति और कांग्रेस के अविवेकी कार्यों को समक्ष लाए विदेशी कपड़ों की जलाई पहली होली
  • देश के पहले झंडे को रूप देकर उसे मादाम कामा के माध्यम से वैश्विक पटल पर फहराया
  • हिंदुत्व की प्रखर व्याख्या प्रस्तुत की
  • सिंधु नदी से सिंधु सागर तक की भूमि को अपनी मातृ भूमि, पितृ भूमि और देव भूमि मानने वाले सभी हिंदू
  • बम बनाने की शिक्षा लेकर उसे अन्य क्रांतिकारियों तक पहुंचानेवाले पहले क्रांतिकारी
  • मार्सेलिस के अथाह सागर में छलांग लगानेवाले एकमात्र क्रांति प्रणेता
  • अंदमान में दोहरा आजीवन कारवास की सजा पाने वाले एक मात्र क्रांतिकारी
  • अस्पृश्यता के विरुद्ध सामाजिक चेतना खड़ा करनेवाले पहले क्रांति प्रणेता और समाज सुधारक

…और शरीर को विराम दे दिया
जीवन भर मृत्यु को मात देनेवाले सावरकर आयु के 83वें वर्ष में अपने शरीर को शिथिल पाने लगे। उन्हें इसका विश्वास हो गया कि, उनके शरीर से राष्ट्र कार्य नहीं हो पाएगा तो 1966 में उसका आलिंगन करने का निश्चय कर लिया। अपना जीवन समाप्त करने का अधिकार प्रत्येक का होना चाहिए, यह विचार उन्होंने मात्र आत्महत्या और आत्मार्पण नामक लेख में पेश नहीं किया बल्कि, उसे आचरण में भी लाया। 2 फरवरी 1966 से औषधि, अन्न का त्याग करके 26 फरवरी 1966 को,

धन्योहं धन्योहं कर्तव्यं मे न विद्यते किंचित।
धन्योहं धन्योहं प्राप्तव्यं सर्व मद्य संपन्नम्।।

इसे गुनगुनाते हुए उन्होंने मृत्यु का आलिंगन कर लिया।

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