अकाली-बसपा गठबंधन… क्या है ‘तराजू’ से बसपा के गठबंधन का भेद?

तीन केंद्रीय कृषि कानूनों ने पंजाब में भारतीय जनता पार्टी के लिए बड़ी कठिनाई खड़ी कर दी है। ऐसे में पहले ही अवसर देखकर शिरोमण अकाली दल ने साथ छोड़ दिया।

95

बहुजन समाज पार्टी एक ओर उत्तर प्रदेश चुनावों की तैयारी में लगी हुई है। वह उसका गृह क्षेत्र है लेकिन पंजाब में भी वह अकाली दल के साथ चुनावी समर में कूदेगी। इसकी आधिकारिक घोषणा सुखबीरसिंह बादल और सतीश चंद्र मिश्रा ने कर दिया। इसमें शिरोमणि अकाली दल 79 सीटों पर और बहुजन समाज पार्टी 20 सीटों पर लड़ेगी।

वर्षों पहले उत्तर प्रदेश में मायावती ने एक नारा दिया था, तिलक, तराजू और तलवर इनको मारो जूते चार। यह नारा इतना प्रचलित हुआ कि इसने बहुजन समाज पार्टी और मायावती का दलित समुदाय में सिक्का जमा दिया। हालांकि यह गणित बहुत लंबा नहीं चला और सोशल इंजीनियरिंग की राह अपनाकर ही बसपा के ‘हाथी’ को आगे पास मिला। अब उस सोशल इंजीनियरिंग को क्या पंजाब में आजमाने जा रही है बसपा यह सबसे बड़ा सवाल है।

ये भी पढ़ें – क्यों मिली कांग्रेस को नाम बदलकर ‘एंटी नेशनल क्लब हाउस’ रखने की सलाह?

ढाई दशक बाद साथ-साथ
बहुजन समाज पार्टी और शिरोमणि अकाली दल लगभग ढाई दशक बाद साथ आए हैं। वे 1996 के लोकसभा चुनाव में साथ लड़े थे, उसमें दोनों ही दलों ने बहुत ऊमदा प्रदर्शन किया था और अकाली दल ने 8 सीट व बसपा ने 3 सीटों पर जीत प्राप्त की थी। लेकिन इसके बाद अकाली दल भारतीय जनता पार्टी के साथ चली गई। परंतु, अब फिर भाजपा और अकाली दल में खटकी तो बसपा साथ हो गई।

सोशल इंजीनियरिंग से सुधारेंगे बात
दरअसल, पंजाब में 32 प्रतिशत के लगभग दलित जनसंख्या है। जो चुनावों में पांसा पलटने का माद्दा रखती है। नए कृषि कानूनों के चलते शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा का ढाई दशक पुराना साथ छोड़ दिया। परंतु, पंजाब में किसानों का बड़ा वर्ग अब भी अकाली दल से नाराज है। दूसरी ओर किसान यूनियन आंदोलन चल ही रहा है। पंचायत चुनाव में इसने छीछालेदर कर ही दी है। ऐसे में शिरोमणि अकाली दल अब बहुजन समाज पार्टी के सोशल इंजीनियरिंग से 32 प्रतिशत दलित वोटों पर कब्जा करना चाहता है।

ये भी पढ़ें – ब्लैक फंगस की औषधि, ऑक्सीजन की कीमतों पर सरकार के इस निर्णय से पड़ा प्रभाव

बसपा को भी साथ चाहिए
बहुजन समाज पार्टी ने 1992 के विधान सभा चुनाव में 9 सीट पर विजय प्राप्त की थी। इसके बाद 1997 के विधानसभा में यह संख्या 1 पर पहुंच गई और उसके बाद तो बसपा का सूपड़ा ही साफ हो गया। बसपा सुप्रीमो मायावती दलित वोटरों की पसंदीदा नेता रही हैं, जबकि उनकी सोशल इंजीनियरिंग में सतीश मिश्रा जैसे नेता आने के बाद नारा भी बदला है, हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रम्हा-विष्णु-महेश हैं। बसपा अपनी इसी इंजीनियरिंग से मतदाताओं का पलड़ा अपनी ओर भारी करना चाहती है। इसीलिए अब तिलक-तराजू और तलवार साथ में हैं और मायावती का जादू बिखेरने के लिए जाल बुनना शुरू हो गया है।

Join Our WhatsApp Community
Get The Latest News!
Don’t miss our top stories and need-to-know news everyday in your inbox.