12 मई, 1947 को शिमला में नेहरू ने कांग्रेस कार्यकारिणी को दरकिनार कर दिया और बिना विचार किए देश के विभाजन की योजना को स्वीकार कर लिया। इससे पहले की घटनाओं का क्रम देखिए, 10 मई को माउंटबेटन ने विभाजन की योजना नेहरू को सौंपी और इसके लिए उनकी सहमति मांगी। लेकिन नेहरू की सहमति लेने के लिए माउंटबेटन उन्हें शिमला क्यों ले गए? क्या दिल्ली में ये काम नहीं हो सकता था?
11 मई को बंटवारे के घोर विरोधी नेहरू कैसे लॉर्ड माउंटबेटन, लेडी माउंटबेटन और पामेला माउंटबेटन के साथ शिमला में समय बिताने के बाद 24 घंटे के भीतर बंटवारे के लिए राजी हो गए? स्वातंत्र्य वीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक के कार्याध्यक्ष और वीर सावरकर के पौत्र रणजीत सावरकर ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी इसका खुलासा करने की चुनौती दी है।रणजीत सावरकर हिन्दुस्थान पोस्ट को दिए एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में बोल रहे थे। रणजीत सावरकर ने बताया कि 11 और 12 मई 1947 को नेहरू और माउंटबेटन तथा उनके परिवार शिमला के वायसराय लॉज में ठहरे हुए थे। इसकी सफाई के लिए 333 मजदूर दिल्ली से गए थे। लॉज तैयार होने के बाद माउंटबेटन, लेडी माउंटबेटन, पामेला माउंटबेटन और जवाहरलाल नेहरू वहां एक साथ रहे थे। उसके बाद माउंटबेटन ने 10 मई की रात को विभाजन की योजना नेहरू को बताई। इसे नेहरू ने 11 मई को रद्द कर दिया था। नेहरू ने कहा कि मैं इससे बिल्कुल भी सहमत नहीं हूं, लेकिन 12 मई, 1947 को नेहरू ने न केवल विभाजन के विचार को स्वीकार कर लिया, बल्कि अपनी संशोधित योजना भी दी, जो भारत के हितों के विरुद्ध थी। उसमें नेहरू ने कहा था कि यदि अंग्रेजों की विभाजन योजना को स्वीकार कर लिया गया तो रक्तपात का दोष अंग्रेजों पर मढ़ दिया जाएगा। नेहरू ने यह भी कहा था कि यदि इस योजना के अनुसार विभाजन हुआ तो रक्तपात होगा और दोष अंग्रेजों को दिया जाएगा। लेकिन यह दोष भारतीयों को लेना चाहिए न कि अंग्रेजों को। नेहरू इसके लिए मुस्लिम लीग की सभी मांगों को मानने को तैयार थे। लेकिन योजना के अनुसार तब वर्तमान सरकार को सत्ता सौंपनी थी। यानी भारत की सत्ता नेहरू को और पाकिस्तान की सत्ता लियाकत अली को। ये सभी ऐतिहासिक तथ्य इतिहास में उपलब्ध हैं। पंडित नेहरू ने 11 महीने पहले जून 1948 में सत्ता के लिए अपनी योजना के विरुद्ध माउंटबेटन की मूल योजना को वापस ले लिया। इसलिए विभाजन केवल 72 दिनों में हुआ। यहां तक कि 72 दिन के अंदर अपनी निजी संपत्ति का बंटवारा भी नहीं होता। उस समय सेना, पुलिस और प्रशासन तैयार नहीं था। खूनखराबा हुआ, लाखों लोग मरे, लाखों महिलाओं का अपहरण हुआ, धर्मांतरण हुआ, ये तथ्य ब्रिटिश दस्तावेज में उपलब्ध हैं। 11 मई को विरोध करने वाले नेहरू ने 12 मई को अपना मत क्यों बदल दिया? इसका कारण माउंटबेटन ने 15 मई 1947 की वायसराय की रिपोर्ट में बताया है। माउंटबेटन ने कहा था- चूंकि नेहरू अधिक काम के कारण मानसिक रूप से थक चुके थे, मैंने नेहरू को आराम करने के लिए बुलाया। उन्होंने हमारे साथ 4 दिन बिताए और अब हम काफी अच्छे दोस्त हैं। चाहे कुछ भी हो जाए, ये दोस्ती हमेशा कायम रहेगी।” इस तरह की व्यक्तिगत बातें आधिकारिक दस्तावेज में नहीं लिखे जाते, फिर भी माउंटबेटन ने ये लिखा। इसका मतलब यह है कि इनकी व्यक्तिगत मित्रता का लाभ अंग्रेजों को मिलना था।
प्रश्न – स्वतंत्रता प्राप्ति में क्रांतिकारियों के योगदान को कांग्रेस क्यों नकार देती है?
रणजीत सावरकर – स्वतंत्रता से पहले कांग्रेस की राजनीति सत्ता हथियाने की नीति थी। इसलिए स्वतंत्रता का श्रेय सिर्फ कांग्रेस ने ही लिया। अंग्रेजों ने जब भी भारत को रियायतें दी और कानून में को सुधार किए, यह देखा गया कि उससे पहले बड़े क्रांतिकारी आंदोलन हुए। लेकिन चूंकि कांग्रेस उस समय एक मजबूत संगठन था, इसलिए वह इसका श्रेय लेती रही। चाहे वह 1921, 1931 और 1942 का आंदोलन हो। 1921 का आंदोलन स्वतंत्रता के लिए नहीं था। उसमें भी कांग्रेस की हार हुई । 1931 का आन्दोलन स्वतन्त्रता के लिए था, परन्तु कांग्रेस ने उसकी कोई भी मांग माने बिना ही अपना आन्दोलन वापस ले लिया। उनके पास भगत सिंह की जान बचाने का एक मौका था, लेकिन कांग्रेस ने भगत सिंह को बचाने का कोई प्रयास किए बिना ही आंदोलन वापस ले लिया। 1942 के आंदोलन को मात्र 4-5 दिनों में कुचल दिया गया था। कांग्रेस के पास इसके लिए कोई योजना या नीति नहीं थी। उस समय कांग्रेस के नेता बंदी बनकर शाही जेल में सुख-सुविधाओं का उपभोग कर रहे थे। कांग्रेस की पूरी कार्यकारिणी शहर की हवेली में आराम कर रही थी। मोहनदास गांधी आगा खान पैलेस में थे, जहां उन्होंने अपने आश्रम के स्टाफ को सेवा के लिए बुला ली थी। 1942 के आंदोलन के 5 साल बाद स्वतंत्रता मिली। इस बीच आजाद हिन्द सेना की उपलब्धियां, नाविकों का विद्रोह सारा इतिहास कांग्रेस द्वारा दबा दिया गया और वे दावा करने लगे कि स्वतंत्रता 1942 के आंदोलन से मिली है। मेरा स्पष्ट आरोप है कि अंग्रेज देश को विभाजित करना चाहते थे। शुरू से ही उनकी यह योजना थी। वे चाहते थे कि भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र हो, एक मजबूत राष्ट्र हो, लेकिन इतना मजबूत नहीं कि इसे नियंत्रित न किया जा सके। अंग्रेजों की मुख्य नीति व्यापार थी। जब अंग्रेजों ने महसूस किया कि वे भारत में शक्ति का प्रयोग किए बिना अधिक लाभदायक व्यापार कर सकते हैं, तो उन्होंने स्वतंत्रता प्रदान करने का निर्णय लिया।
प्रश्न – क्रांतिकारियों के प्रति कांग्रेस के रुख में इंदिरा गांधी अपवाद क्यों थीं?
रणजीत सावरकर – इंदिरा गांधी हालांकि गांधी की अनुयायी थीं, लेकिन उन्होंने उनके किसी भी सिद्धांत को लागू नहीं किया। गांधी जी का कहना था कि कारखानों को बंद कर देना चाहिए और हथकरघा उद्योग शुरू कर देना चाहिए, लेकिन इंदिरा गांधी ने बड़े पैमाने पर मशीनीकरण किया और बड़े उद्योग शुरू किए। महात्मा गांधी और पंडित नेहरू का मत था कि देश में सेना नहीं होनी चाहिए, लेकिन इंदिरा गांधी ने सेना को सशक्त किया, परमाणु बम का परीक्षण किया, पाकिस्तान को दो भागों में बांट दिया, भारत को एक वैज्ञानिक राष्ट्र बना दिया। वीर सावरकर की भारत को जो आधुनिक बनाने की नीतियां थीं, उन्हें इंदिरा गांधी द्वारा लागू की गईं। इस तरह इंदिरा गांधी स्वाभाविक रूप से वीर सावरकर के विचारों से प्रभावित थीं।
प्रश्न – कांग्रेस ने कर्नाटक विधान सभा में वीर सावरकर की तस्वीर लगाने का विरोध किया, कांग्रेस बार-बार सावरकर का विरोध क्यों करती है?
रणजीत सावरकर – कांग्रेस वीर सावरकर का करीब 20 साल से विरोध कर रही है। जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सत्ता में आई थी, तब से ही ये शुरू है। सोनिया गांधी ने तब वीर सावरकर का विरोध किया था। लेकिन जब कांग्रेस की सरकार आई तो यह प्रथा बंद कर दी गई। 2014 में दोबारा भाजपा की सरकार आई और यह विरोध फिर से शुरू हो गया, क्योंकि वीर सावरकर हिंदुत्व के अग्रदूत हैं। चूंकि भाजपा एक हिंदुत्वादी पार्टी है, इसलिए कांग्रेस ने जानबूझकर हिंदुत्व के प्रणेता वीर सावरकर का विरोध करने की नीति अपनाई। हिंदुत्वादी पार्टी का विरोध करने के लिए, कांग्रेस ने तब हिंदुत्व के नेता वीर सावरकर का विरोध करने का फैसला किया। कांग्रेस ने वास्तविक मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए सावरकर पर बार-बार झूठे आरोप लगाए हैं। इसके पीछे कांग्रेस के सत्ता स्वार्थ के अलावा और कोई कारण नहीं है।