गांधी का अस्पृश्यता आंदोलन वीर सावरकर के कार्य से था प्रेरित – प्रोफेसर रजनीश शुक्ला

भारत में वीर सावरकर की राष्ट्रीय दृष्टि विघटनकारी तत्वों को खल रही है, ईश निर्मित इस देश को उस स्थान पर ले जाना है तो हिंदुइज्म को समझे जाने की आवश्यकता है।

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आजादी का अमृत महोत्सव के अंतर्गत ‘डिसमेन्टलिंग कास्टिज्म : लेसन्स फ्रॉम सावरकर्स एसेन्सशियल्स ऑफ हिंदुत्व’ के अंतर्गत संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। इसमें वर्धा विश्वविद्यालय के उपकुलपति रजनीश.के.शुक्ला उपस्थित थे। उन्होंने, अपने संबोधन में कहा कि गांधी का अस्पृश्यता निर्मूलन स्वातंत्र्यवीर सावरकर के समाज कार्यों से प्रभावित था। गांधी के अस्पृश्यता निर्मूलन कार्यक्रम से दस वर्ष पहले स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने समाजोद्धारक के रूप में कार्य शुरू कर दिया था।

रजनीश शुक्ला, वीर सावरकर के जीवन का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि, सावरकर कहते हैं कि मेरा जीवन निरंतर का प्रयोग है, भारत की अनादि हिंदुत्व की जो परंपरा है उसका जीवन है। सावरकर जिस भारत की बात कर रहे हैं वह बौद्धिकता का समाज है। दुनिया जिसे धर्म परिवर्तन के रूप में स्वीकार कर रही थी, उसे सावरकर ने पंथ परिवर्तन के रूप में स्वीकार किया। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर 1956 में सही रूप से हिंदु बने थे।

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उद्धारक की भूमिका नहीं बताई
गांधी से दस वर्ष पूर्व उस कार्य को बिना उद्धारक की भूमिका में आए हुए, जिन लोगों के कारण हिंदू समाज के बड़े हिस्से को बहिष्कृत भारत के रूप में रुप में अपने को प्रस्तुत करना पड़ा रहा था, उन्हें बिना बताए कि हम तुम्हारा उद्धार करने आए हैं, रत्नागिरी का साधनाकाल उसका है। यह डिस्कोर्स उस ओर क्यों नहीं जाता है, जब 1934 में गांधी कहते हैं कि, अब आजादी मेरा लक्ष्य नहीं है, बल्कि केवल रचनात्मक कार्य ही मेरा लक्ष्य है। उस ओर क्यों नहीं जाता है जब 1933 में गांधी हरिजन यात्रा करके कहते हैं कि रचनात्मक कार्य ही मेरा एक मात्र लक्ष्य है।

अनादि के राम के रूप में अनिंदित हैं वीर सावरकर
रजनीश शुक्ला आगे कहते हैं कि, भारत में वीर सावरकर की राष्ट्रीय दृष्टि विघटनकारी तत्वों को खल रही है, ईश निर्मित इस देश को उस स्थान पर ले जाना है तो हिंदुइज्म को समझे जाने की आवश्यकता है। सावरकर को भारत के इतिहास में सही स्थान दिया जाता है तो एक ऐसा महापुरुष प्राप्त होता है जिसका जीवन हिंदुत्व के अनादि इतिहास में राम की तरह अनिंदित है।

ऐसे इतिहासकार हैं वीर सावरकर
सावरकर 10 हजार पृष्ठों का इतिहास लिखनेवाले वह इतिहासकार हैं, जिनके समक्ष 600 वर्षों के भारत के इतिहास में इतना विपुल लिखनेवाला कोई अन्य दिखाई नहीं देता है। यदि देखा जाए तो आचार्य अभिनव गुप्त के बाद 1100 वर्षों के इतिहास के बाद वीर सावरकर के अलावा कोई दूसरा इतिहासकार नहीं आया है, जिसमें इस प्रकार का वैविध्य रहा हो। इसलिए किसी-किसी को सावरकर निरीश्वरवादी लगते हैं।

सावरकर के हिंदूनेस की जो प्रवृत्तियां रही हैं, उसके अनुसार प्रवृत्ति और कर्मों में किसी किस्म का फल देने का अधिकार ईश्वर को भी नहीं है, इस प्रकार का जो विचार है, उसको अपनी मूल परंपरा माननेवाले और उसे भाष्यकार के रूप में कोई प्रकट करता है तो वो सावरकर हैं। सावरकर भारत के समग्र इतिहास के प्रस्तुतकर्ता हैं जो उसे टुकड़े-टुकड़े में बांटकर नहीं देखते। सावरकर की धर्म दृष्टि वही रही है जो इस देश में पांच हजार वर्षों से रही है। जन्म-जाति की जो एकारिका बन गई है, यानी जो जिस जाति में जन्म लेगा वो उसी जाति का रहेगा। यह इस देश का यथार्थ नहीं रहा है, वो कहते हैं जो अब जो कर सकता है, वह वही होगा, यह इस देश का यथार्थ है।

डिसमेन्टलिंग कास्टिज्म पर भी विवाद
इस संगोष्ठी पर एक विवाद उत्पन्न किया गया था। जिस पर टिप्पणी करते हुए रजनीश शुक्ला कहते हैं कि, आईसीएचआर का वीर सावरकर के सिद्धांतों पर आधारित सेमिनार ठीक है, लेकिन डिसमेन्टलिंग कास्टिज्म यह आईसीएचआर को करना उचित है या इसे आईसीएसएसआर को करना चाहिये था? यह स्वातंत्रोत्तर काल के इतिहासकारों द्वारा उठाई गए एक सोची समझी साजिश है। सावरकर के इस बिंदु पर जब चर्चा होती है तो, वे इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि सावरकर क्रांतिकारी थे, प्रेरणा तो दी थी लेकिन माफी मांग ली थी। जब 1911 से 1921 तक की बहस के बाद वो बाहर आए तब यह चर्चा समाप्त हो जाती है कि माफीनामे से माफी नहीं हुई है। इसके बाद भी साजिशकर्ताओं का मानना था कि बाहर आकर वो क्या कर रहे थे इस पर क्या चर्चा करना। ये वो लोग हैं जो आईसीसीएसआर के टॉपिक पर आईसीएचआर क्यों उठा रहा है, ऐसे प्रश्न खड़ा करते हैं, ये वही लोग हैं जिन्होंने हिंदुत्व के इतिहास में जातिवाद की विस्मृतियां निर्मित की थी।

वीर सावरकर और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर साम्यता
हिंदुत्व और हिंदुइज्म एक नहीं हैं, 1924 से यह बात शुरू होकर 1956 तक जाती है। सावरकर ने 1924 में जिसे शुरू किया था और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने 1956 में जिसे एक परिणति दी थी, उस व्यापक विचार विमर्श को पूरी तरह से अलग कर देने का मार्ग है, यह विषय सोसियालॉजी का है। गनीमत है कि उन्होंने यह नहीं कहा कि यह विषय हिंदू धर्म शास्त्र का है। 1924 से 1937 सावरकर ने रत्नागिरी में जो किया वह सामाजिक सुधार का आंदोलन नहीं था। यह हिंदुत्व को साफ-साफ पारदर्शी रूप से दिखाने की प्रयोगभूमि के रूप का कालखण्ड है।

वीर सावरकर का हिंदुत्व
हिंदुत्व को डिसमेन्टल करते हैं तो भारत डिसमेन्टल होता है। एक किताब आई थी ब्रेकिंग इंडिया। इस पर दक्षिण और वाम दोनों पक्षों से आई थीं। उनको समझने की कोशिश की गई। लेकिन सावरकर के इस स्थान को उस रूप में भी समझना पड़ेगा कि, यहां सावरकर ने यहां कहा था कि हिंदुत्व का शास्त्र समझ लेने से हिंदुत्व का विचार जीवन में लागू नहीं होता, इसके लिए जीवन में कुछ करना पड़ेगा। इस जीवन में व्यावहारिक रूप से कुछ करके दिखाना पड़ेगा।

इतिहास को घटनाओं को संजोकर करके, टुकड़ो-टुकड़ों संजो करके जिन लोगों द्वारा भारत का एक विकृत चित्र, भारतीय समाज का एक विकृत चित्र, अनादि हिंदू का विकृत चित्र प्रस्तुत किया था, उनके विरुद्ध भारत में पहली बार एक बौद्धिक आंदोलन शुरू किया गया था और इस बौद्धिक आंदोलन के प्रयोग रत्नागिरी में किये गए थे।

विज्ञान आधारित धर्म का समर्थन
गांधी बार-बार अपने आपको सनतनी हिंदू, वर्णाश्रम व्यवस्था में विश्वास करता हूं। सावरकर ने साफ कहा कि ये जो वर्णाश्रम व्यवस्था में विश्वास करते हैं ये पौराणिक व्यवस्था से प्रभावित लोग हैं। ये पुराण किसी काल में रचे गए होंगे जिस काल में धर्म व्यवस्था को बताने के लिए इसकी आवश्यकता रही होगी। इस पूरी पौराणिक व्यवस्था से स्मृति तो विश्वास नहीं करते हैं, देव तो विश्वास नहीं करते और यदि जन्म जाति के विषय में वेद मनुष्य के बीच अंतर करते हैं तो वह वेद स्वीकार नहीं हैं।

डिसमेन्टलिंग कास्टिसिज्म का अर्थ है कि डेसमेन्टल करना है तो मेन्टल स्टेटस को डिसमेन्टल करना है। 1934 में जिस बात को बाबासाहेब अपने यत्नों में कहते हैं उसे 1924 वीर सावरकर ने पहचाना था।

हिंदुत्व की पहचान का मूवमेन्ट
1920 से 1924 के इतिहास को समझना है तो कांग्रेस का इतिहास देखिये। ऑटोमन एंपायर का राज गया, खलाफत गई मुसलमानों की, तुर्की में परिवर्तन हुआ, शासक बना तुर्क और दर्द केवर भारत के राजनेताओं को हुआ था। खलाफत मूवमेंन्ट गांधी ने किया था, जौहर अली पहले कांग्रेस के पहले अध्यक्ष थे, इसके बाद मौलाना अबुल कलाम आजाद बने और तीसरे अध्यक्ष बने गांधी। ये कालखंड है जिसमें हिंदू और मुसलमान की दो आइडेंटिटी की स्वीकृति इस देश में की गई थी। यह इतना जड़बद्ध हो गया था कि उसे तोड़ने के लिए हिंदू आइडेंटिटी की जो बैरिकेडिंग की गई थी, उसकी दीवारें बाहर से ही न टूटें बल्कि अंदर से भी टूटें, इसके लिए जो आंदोलन किया गया था उसका योगदान भारत की स्वतंत्रता के आंदोलन में समझना होगा। ये हिंदुत्व की पहचान का मूवमेन्ट था।

पहले पोस्ट मॉडर्न के रूप में किसी का नाम लिखा जाएगा तो स्वातंत्र्यवीर सावरकर का लिखा जाएगा। मॉर्डनिटी ने जो विश्व व्यवस्था दी थी, उस पर चोट देने दा काम कोई कर रहा है तो वह केवल स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने किया था।

दो दिवसीय इस संगोष्ठी का उद्घाटन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के हाथों संपन्न हुआ। जिसमें प्रमुख अतिथि थे प्रोफेसर अशोक मोडक और प्रोफेसर रजनीश शुक्ला। मुख्य वक्ता थे उदय माहूरकर और स्वातंत्र्यवीर सावरकर के पौत्र रणजीत सावरकर। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रोफेसर कुमार रत्नम ने की जो सचिव हैं आईसीएचआर के।

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