क्रांति कार्यों में नारायण सावरकर भी नहीं थे पीछे, बंधुओं की मुक्ति में बड़ी भूमिका

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तीन सावरकर बंधुओं में नारायण सावरकर सबसे छोटे थे। स्वातंत्र्यवीर सावरकर लंदन में बैरिस्टर की पढ़ाई करने गए थे और वहां उन्होंने भारतीय छात्रों और नागरिकों को एकत्र करने का कार्य शुरू कर दिया। दूसरी ओर भारत में सावरकर बंधुओं में सबसे बड़े बाबाराव सावरकर पर राजद्रोह के अंतर्गत नासिक न्यायालय ने कालापानी की सजा दी थी। ठाणे सत्र न्यायालय में इस प्रकरण की सुनवाई चल रही थी। ऐसे में नारायण सावरकर ने बड़े भाई बाबाराव सावरकर पर चल रहे अभियोग को चुनौती देने के लिए अधिवक्ता नियुक्त करने का कार्य किया।

बाबाराव सावरकर और गणेशपंत का प्रकरण स्वीकारने के लिए नारायण सावरकर ने अथाह श्रम किया, परंतु अंग्रेजों के भय से ठाणे का कोई वकील समर्थन में खड़ा नहीं हुआ। सभी को अंग्रेजी सत्ता के विरोध का भय, संपत्ति कुर्की, गिरफ्तार होने का भय सता रहा था, इससे परेशान होकर नारायण सावरकर ठाणे के ठोसर वकील के पास पहुंचे और यहां-वहां से इकट्ठा किये गए दो सौ रुपए देकर उनसे बाबाराव के प्रकरण में वकील बनने की बिनती की। ठाणे न्यायालय में प्रकरण चला और न्यायालय ने बाबाराव सावरकर को राजा के विरुद्ध चेतावनी देनेवाली कविता प्रकाशित करने के लिए कालापानी की सजा सुनाई।

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गिरफ्तार हो गए तीसरे सावरकर
बाबाराव सावरकर को आजीवन कारावास की सजा हो चुकी थी। स्वातंत्र्यवीर सावरकर को इंग्लैंड से भारत भेज दिया गया था। इसी समय 13 अक्टूबर को लॉर्ड मिंटो पर कर्णावती में बम फेंका गया था। इसमें संलिप्तता के शक में नारायण राव सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि, उन्हें 18 दिसंबर को छोड़ दिया गया, परंतु 23 दिसंबर को फिर गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार गिरफ्तारी के पीछे 21 दिसंबर को जैक्सन का वध था। नारायण सावरकर को 23 दिसंबर को सिन्नर से गिरफ्तार किया गया था। वहां से उन्हें मुंबई कारागृह में लाया गया। जहां स्वातंत्र्यवीर सावरकर भी जेल में बंद थे। परंतु, दोनों बंधुओं की कभी भेंट नहीं हुई।

स्वातंत्र्यवीर और नारायण सावरकर को कैद
मुंबई उच्च न्यायालय में सावरकर बंधुओं के प्रकरण की सुनवाई हो रही थी। इसमें आरोप था कि, स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने लंदन से पिस्तौलें भेजी थीं, वह भारत में अंग्रेज सरकार के अधिकारियों की हत्या करने के लिए थीं। इन पिस्तौलों को उनके छोटे भाई नारायण सावरकर ने छुपाकर रखी थी, उन्होंने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध भाषण किये थे। जिसे देखते हुए उन पर भी राजद्रोह के कानून के अंतर्गत सुनवाई चल रही थी। राजद्रोह के प्रकरण में स्वातंत्र्यवीर सावरकर को दोहरे कालापानी यानि 50 वर्ष की सजा हुई। इस प्रकरण में अंग्रेजों ने नारायण सावरकर को छह महीने की सजा सुनाई।

न्यायालय ने माना नारायण सावरकर कट्टर क्रांतिकारी
मुंबई उच्च न्यायालय ने 24/12/1910 को राजद्रोह के प्रकरण में आदेश सुनाया था। वहां सेक्शन 121 ए के अंतर्गत स्वातंत्र्यवीर सावरकर और नारायण सावरकर के विरुद्ध सुनवाई हो रही थी। स्वातंत्र्यवीर सावरकर को 50 वर्ष के दोहरे कालापानी की सजा सुनाने के पश्चात, न्यायालय ने नारायण सावरकर के विरुद्ध आदेश दिया। जो इस बात का प्रमाण है कि, अंग्रेजों से लोहा लेने में क्रांतिकारी नारायण सावरकर भी अपने भाइयों के समकक्ष कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे।

न्यायालय का आदेश
अपने आदेश में मुंबई उच्च न्यायालय ने कहा, नारायण सावरकर का प्रकरण भी 121 ए के अंतर्गत वैसा ही प्रकरण है। उन पर लगाए गए आरोपों के साक्ष्य परिस्थितिजन्य होने के बाद भी वह आरोप सिद्धि के लिए पूर्ण हैं। 1908 के मई माह में उनके द्वारा दिया गया एक भाषण यह पूर्णत: सिद्ध करता है कि, वह भी स्वतंत्रता के घोर समर्थक हैं और राजनीतिक हत्याओं को योग्य मानते हैं। सावरकर के घर की जांच करते हुए आरक्षियों को कई गुप्त कागज और बम मैन्यूअल प्राप्त हुए हैं। नारायण सावरकर द्वारा इंग्लैंड में विनायक सावरकर को लिखे गए पत्र पोस्ट से जप्त कर लिये गए हैं। उसे आरक्षी (अंग्रेज पुलिस) ने साक्ष्य के रूप में न्यायालय में प्रस्तुत किया है। इसमें नारायण यह लिखते हैं कि, देश को दासता से मुक्ति दिलाने के लिए वे अपने बंधु की जो भी आज्ञा होगी वह मानने को तैयार हैं। नारायण सावरकर द्वारा प्रत्यक्ष में पिस्तौल या अन्य शस्त्र या विस्फोटक छुपाने के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं। परंतु, यह आरोप सिद्ध हैं कि, वह अभिनव भारत के सदस्य हैं। इस संस्था की नीतियों की पूर्ण रूप से कल्पना है, और अपने भाइयों के कदमों पर चलने की उनकी तैयारी है। अभिनव भारत संस्था के अन्य सदस्यों से उनके अच्छे संबंध हैं और उनके षड्यंत्रों में कट्टरता से वह सम्मिलित हैं। परंतु, अभी नारायण सावरकर कम आयु के हैं। लगभग 20-21 वर्ष के होंगे, ऐसी स्थिति में उन्हें समझा बुझाकर इन कार्यों से दूर कर सकते हैं। सेक्शन 121 ए के अंतर्गत नारायण सावरकर भी दोषी हैं, नारायण सावरकर यह न्यायालय तुम्हें छह महीनों के सश्रम कारावास की सजा सुनाती है।

बंधुओं की मुक्ति के लिए नारायण सावरकर का राष्ट्रीय आंदोलन
नारायण सावरकर ने बड़े बंधु बाबाराव सावरकर और स्वातंत्र्यवीर सावरकर की कालापानी से मुक्ति के लिए राष्ट्रीय आंदोलन प्रारंभ कर दिया। जेल नियमों के अनुसार बंदियों को पांच वर्ष में छूट मिलती थी। परंतु, सावरकर बंधुओं को बारह वर्षों के बाद भी वह नहीं मिली। इसके पश्चात नारायण सावरकर ने अपने बंधुओं की मुक्ति के लिए समाज के प्रभावी, नेतृत्वकर्ता और संपादकों से विनंती की और अंग्रेजों पर दबाव लाने का प्रयत्न किया।

इसका परिणाम यह हुआ कि, बाबू सुरेंद्रनाथ बैनर्जी से मिलकर उनके समाचार पत्र में सावरकर बंधुओं पर लेख प्रकाशित करवाया, मोतीलाल घोष और श्याम सुंदर चक्रवर्ती के माध्यम से अमृत बाजार पत्रिका में सावरकर बंधुओं को छोड़ने की मांग की। मॉडर्न रिव्यू के संपादक रामानंद चैटर्जी ने भी लेख लिखा। मुंबई क्रॉनिकल के संपादक बेंजामिन गाय हॉर्निमन ने भी संपादकीय लिखा। इसके साथ ही अच्युत बलवंत कोल्हटकर, नरसिंह चिंतामण केलकर ने भी नारायण सावरकर के प्रयत्नों का समर्थन किया।

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एकत्र किये 80 हजार हस्ताक्षर
वर्ष 1917 में नारायण सावरकर ने मुंबई में तीव्र आंदोलन खड़ा किया। बॉम्बे नेशनल यूनियन के माध्यम से उन्होंने कार्य शुरू किया। इसमें संस्था के कार्यकर्ताओं की सहायता ली। कड़े प्रयत्नों के पश्चात चार महीनें में 80 हजार हस्ताक्षर एकत्र किये। लोगों से हस्ताक्षर प्राप्त करने के लिए नारायण सावरकर रात-रात भर बाहर रहते। 11 नवंबर, 1919 को पुणे में हुई सार्वजनिक सभा में यह निर्णय हुआ कि 80 हजार हस्ताक्षरों को अंग्रेज सरकार के पास भेजा जाए। परंतु, वह अंग्रेज सरकार के पास पहुंची ही नहीं।

राजनीतिक दबाव के प्रयत्न
नारायण सावरकर ने लोकमान्य तिलक के मित्र विदर्भ के दादासाहेब खापर्डे से भेंट की। खापर्डे और तमिलनाडु के रामास्वामी आयंगार केंद्रीय सरकार में थे। उन दोनों के माध्यम से बाबाराव सावरकर और स्वातंत्र्यवीर सावरकर और राजनीतिक बंदियों की मुक्ति के लिए केंद्रीय सभागृह में चर्चा शुरू करवाई। कालापानी की सजा से लौटे भाई परमानंद ने उत्तर भारत में वातावरण बनाया। नारायण सावरकर के यत्नों के अनुरूप गांधी ने यंग इंडिया में सावरकर बंधुओं को छोड़ने के लिए लेख लिखा। नारायण सावरकर के यत्नों को यश मिला और अंग्रेज सरकार ने सावरकर बंधुओं को सशर्त छोड़ने का निर्णय किया।

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