पांच साल में कितनी कमजोर हुई कांग्रेस? कहां लगा झटका, कहां गंवाई सत्ता?

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कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को 19 अक्टूबर को फिलहाल पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया गया। काफी जद्दोजहद से 24 वर्ष बाद पार्टी ने गैर गांधी अध्यक्ष चुना है। इससे पहले सीताराम केसरी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था। वे 1996 से 1998 तक पार्टी अध्यक्ष रहे। हालांकि उनके अध्यक्ष बनने के बाद भी यह कहना मुश्किल है कि पार्टी का रिमोट कंट्रोल खड़गे के पास रहेगा या सोनिया-राहुल गांधी के पास। लेकिन पार्टी के नेता इस बात से ही खुश हैं कि पार्टी को नया अध्यक्ष मिल गया है। हालांकि मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी में जान फूंकने और कमजोर होती पार्टी को मजबूत करने में कितना कारगर साबित होंगे, ये 2022 के ही अंत तक पता चल जाएगा।

खड़गे की होगी इसी वर्ष होगी परीक्षा
दरअस्ल 2022 में हिमाचल प्रदेश और गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के नये अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की असली परीक्षा होगी। इन प्रदेशों में होने वाले चुनाव के परिणाम ये बता देंगे कि दिनोंदिन कमजोर होती कांग्रेस को मजबूत करना असंभव है या फिर पार्टी की स्थिति में सुधार संभव है।

गोवा में खेला और राजस्थान में हिल गई कांग्रेस
फिलहाल पिछले पांच वर्षों का इतिहास देखा जाए तो यही पता चलता है कि चुनाव दर चुनाव कांग्रेस कमजोर होती गई है।
अभी चंद दिन पहले की ही बात है। राहुल गांधी और कांग्रेस नेता भारत जोड़ो यात्रा पर थे और गोवा में पार्टी के साथ खेला हो गया। वहां कांग्रेस के 11 विधायकों में से 8 भाजपा में शामिल हो गए। इसके साथ ही राजस्थान में भी स्थिति सुधरी नहीं है। हालांकि फिलहाल वहां शांति है लेकिन ये शांति कांग्रेस के लिए तूफान से पहले की शांति साबित हो सकती है। इसका कारण ये है कि वहां अशोक गहलोत जहां मुख्यमंत्री की कुर्सी का मोह त्यागने को तैयार नहीं हैं, वहीं सचिन पायलट भी बड़ा उलटफेर करने की तैयारी में लगे हैं।

10 महीनों में पार्टी के 8 बड़े नेताओं ने छोड़ी कांग्रेस
फिलहाल अगर हम पिछले करीब 10 महीनों में कांग्रेस की स्थिति का आकलन करें तो पता चलता है कि पार्टी में किस तरह की भगदड़ मची है। पिछले 10 महीनों में पार्टी के 8 बड़े नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है, इनमें से चार को केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। इनमें गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, आरपीएन सिंह, अश्विनी कुमार, सुनील जाखड़, हार्दिक पटेल, कुलदीप विश्नोई और जयवीर शेरगिल शामिल हैं।

गोवा में हो गया खेला
गोवा में कांग्रेस के 11 विधायक थे। जिसमें से आठ विधायकों ने 26 सितंबर को भाजपा का दामन थाम लिया। अब कांग्रेस में सिर्फ तीन विधायक ही बचे हैं। आठ विधायकों ने एक साथ कांग्रेस पार्टी छोड़ भाजपा की सदस्यता ले ली थी। यह संख्या दो-तिहाई से अधिक है। इसलिए इन पर दल बदल कानून भी लागू नहीं हो सका। गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस विधायक दिगंबर कामत, माइकल लोबो, देलिया लोबो, केदार नाइक, राजेश फलदेसाई, एलेक्सो स्काइरिया, संकल्प अमोलकर और रोडोल्फो फर्नांडीज भाजपा में शामिल हो गए थे।

राजस्थान में मुश्किल से बची सत्ता
26 सितंबर को गोवा में पार्टी के आठ विधायकों भाजपा में शामिल होने के बाद राजस्थान में खेला होते-होते बच गया। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि इस प्रदेश में कांग्रेस कब तक सत्ता को बचाने में सफल होती है। इसका कारण यह है कि पार्टी के अंदर पहले जैसी एकजुटता नहीं रही है और गहलोत की वफादारी भी पार्टी हाइकमान के प्रति पहले जैसी नहीं रही है। पायलट गुट के नेता अभी भी गहलोत के खिलाफ हवा तैयार करने में जुटे हैं। इसके साथ ही भाजपा भी यहां मौके पर चौका लगाने के लिए सक्रिय है और मौका मिलते ही वह मध्य प्रदेश की तरह रातोरात कांग्रेस को कुर्सी से बेदखल कर सकती है।

भारत जोड़ो यात्रा में गोवा में टूट गई काग्रेस

गोवा और राजस्थान के बाद ही कांग्रेस को तेलंगाना भी करारा झटका लगा है। इस प्रदेश के वरिष्ठ नेता डॉ दसोजू श्रवण ने 7 अगस्त को भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया था। हाल ही में कांग्रेस से इस्तीफा देने वाले दासोजू राज्य के पार्टी प्रभारी तरुण चुग और केंद्रीय मंत्री किशन रेड्डी की उपस्थिति में भाजपा में शामिल हो गए। कांग्रेस प्रवक्ता रहे डॉ दासोजू श्रवण कुमार ने पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष ए रेवंत रेड्डी पर निरंकुश तरीके से कामकाज का आरोप लगाते हुए 5 अगस्त को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। उल्लेखनीय यह भी है कि मुनूगोडू से कांग्रेस विधायक कोमातिरेड्डी राजगोपाल रेड्डी ने भी इससे पहले कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया था।

पांचों प्रदेशों में करारी हार
2022 में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणामों का गंभीरता से आकलन करने के बाद कांग्रेस का समाधि लेख लिखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में कांग्रेस को मतदाताओं ने सिरे से खारिज कर दिया। इन परिणामों के बाद ही कांग्रेस को गांधी परिवार से अलग करने की मांग तेजी से उठने लगी थी। हालांकि अब पार्टी अध्यक्ष बदलने के बाद भी पार्टी की स्थिति सुधरेगी, इसमें जानकारों को संदेह है।

रैली और सभा का परिणाम रहा जीरो
चुनाव आयोग ने 9 जनवरी 2022 को चुनाव कार्यक्रम की घोषणा की थी, उसके बाद प्रियंका गांधी ने 42 जगह रोड शो और घर-घर सम्पर्क का अभियान किया। उन्होंने नुक्कड़ सभाओं, वर्चुअल रैलियों आदि के जरिये 340 विधानसभा क्षेत्रों में सम्पर्क किया, इसमें उत्तर प्रदेश के अलावा पंजाब, गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर के दौरे भी शामिल हैं। राहुल गांधी ने भी उत्तर प्रदेश में काफी वक्त बिताया पर अपनी बहन की तुलना में थोड़ा कम। छतीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, सचिन पायलेट, दीपेन्द्र हुड्डा, शायर और कांग्रेस के माइनॉरिटी सेल के चीफ इमरान प्रतापगढ़ी आदि जमीन पर दिखे। इमरान प्रतापगढ़ी ने अकेले छह दर्जन सभाएं की। पर इन सभाओं और प्रयासों के नतीजे जीरो निकले।

काम न आई कांग्रेस की कसरत
उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी और राहुल गांधी के सामने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, योगी आदित्यनाथ, जे.पी. नड्डा, राजनाथ सिंह जैसे शिखर नेता थे। जैसी उम्मीद थी, वही हुआ। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में फिर करारी शिकस्त मिली। अब आप समझ लें कि 1989 से कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर है। वहां उसके अंतिम मुख्यमंत्री वीर बाहदुर सिंह थे। यह वही उत्तर प्रदेश है, जो कि कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था और नेहरू परिवार का निवास भी।

कांग्रेस को मतदाताओं ने नकारा
याद करें कि इन पांच राज्यों के चुनावों से पहले राहुल गांधी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जहां पर भी रैली की, वहां कांग्रेस को मतदाताओं ने नकारा दिया था। कांग्रेस पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में खाता भी नहीं खोल पाई। जिस पार्टी से पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, सरदार पटेल और चितरंजन दास जैसे जन नेताओं का संबंध रहा है, वह पार्टी अंतिम सांसें ले रही है। यह दुखद स्थिति है। उसका वजूद समाप्त हो रहा है। उसे बचाने की कहीं कोशिश होती नजर तक नहीं आ रही।

मिली करारी हार
कांग्रेस की हार के लिए गांधी परिवार के साथ-साथ पार्टी के कुछ दूसरे नेताओं को भी जिम्मेदारी लेनी होगी। कांग्रेस में पी.चिदंबरम, अभिषेक मनु सिंघवी समेत दर्जनों तथाकथित नेता हैं, जिनका जनता से कोई संबंध तक नहीं है। ये लुटियन दिल्ली के बड़े विशाल सरकारी बंगलों में रहकर कागजी राजनीति करते हैं।

चुनाव को लेकर कही थी ये बात
प्रियंका गांधी बार-बार कहती रहीं कि वो उत्तर प्रदेश में रहकर ही काम करेंगी। तो फिर उन्होंने चुनाव क्यों नहीं लड़ा। वो चुनाव लड़ने से क्यों भागती हैं? वो नेता ही क्या, जिसे चुनाव लड़ने से डर लगता हो। याद करें जब हिजाब विवाद चल रहा था, तो उन्होंने एक जगह कहा था- “लड़कियों को हिजाब पहनने का अधिकार है। अगर कोई बिकिनी पहनना चाहे तो वह भी पहन सकती है।” क्या राष्ट्रीय दल की नेता को इतना सड़कछाप बयान देना चाहिए? प्रियंका गांधी किस आधार पर स्कूलों में हिजाब पहनने के हक में बोल रही थीं? उन्हें बताना चाहिए। क्या भारत में कोई बिकिनी पहनकर स्कूल में आएगी? प्रियंका गांधी को समझ होनी चाहिए कि देश का मतदाता सबकुछ देखता है।

कन्हैया कुमार की एंट्री भी व्यर्थ
पिछले साल सितंबर में राहुल और प्रियंका गांधी के आशीर्वाद से जेएनयू के टुकड़े-टुकड़े गैंग के नेता कन्हैया कुमार की कांग्रेस में एंट्री हुई थी। ये वही कन्हैया कुमार थे जो कहते थे कि भारतीय सेना के जवान कश्मीर में बलात्कार जैसे घिनौने कृत्य कर रहे हैं। क्या कांग्रेस भी कन्हैया कुमार के बेतुके और बेहूदगी भरे आरोपों के साथ खड़ी थी? प्रियंका गांधी ने कभी बताया नहीं कि कन्हैया कुमार किसलिए और किस आधार पर सरहदों की रक्षा करने वाली भारतीय सेना पर आरोप लगाते रहे हैं? आप अगर देश विरोधी तत्वों का साथ देंगे तो चुनावों में जनता आपको जवाब तो देगी ही।

समझ की कमी
दरअसल न तो राहुल जनता का मिजाज और राजनीति जानते हैं और न ही प्रियंका। इनकी किसी भी अहम सवाल पर कोई धीर-गंभीर राय नहीं होती। राहुल गांधी की चाहत है कि वे नरेंद्र मोदी का स्थान ले लें। प्रियंका की भी इच्छा है कि वे दूसरी इंदिरा गांधी बनें। लेकिन दोनों भारत को अभी तक समझ ही नहीं पाए हैं। यही वजह है कि आज कांग्रेस पार्टी की स्थिति बेहद शर्मनाक हो गई है। अगर ये दोनों पार्टी में बरकरार रहते हैं तो कांग्रेस के अंतिम संस्कार की राख भी ढूंढने से नहीं मिलेगी। पंजाब में सब ठीक ठाक ही चल रहा था। लेकिन इन दोनों ने राजनीति के धाकड़ कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री के पद से हटाकर नवजोत सिंह सिद्धू जैसे नान-सीरियस मसखरे इंसान को पार्टी का मुखिया बन दिया। इनके फैसलों का नतीजा सबके सामने है।

सिद्धू ने किया बंटाढार
2019 के लोकसभा चुनाव को जरा याद कर लेते हैं। तब केरल और पंजाब को छोड़कर कहीं भी कांग्रेस का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा था। पंजाब में कांग्रेस पूर्व पटियाला नरेश कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व के कारण ही जीती थी। उसी कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ राहुल गांधी ने नवजोत सिंह सिद्धू को खड़ा किया। सिद्धू राहुल गांधी के प्रिय हैं। कैप्टन के न चाहने के बाद भी सिद्धू को कांग्रेस में एंट्री मिली थी। राहुल गांधी ने सिद्धू को सारे देश में प्रचार के लिए भेजा था। सिद्धू ने सभी जगह जाकर भाजपा और मोदीजी के खिलाफ अपनी गटरछाप भाषा का इस्तेमाल किया। यह सब जनता देख रही थी। परिणाम यह हुआ कि सिद्धू जहां भी गए, वहां कांग्रेस परास्त हो गई।

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