राष्ट्रपति चुनाव के लिए 18 जुलाई को कराए गए मतदान के मतों की गिनती जारी है। मिल रहे परिणाम में अब तक उम्मीद के अनुसार द्रौपदी मुर्मू यशवंत सिन्हा से काफी आगे चल रही हैं। उनकी जीत भी तय मानी जा रही है। लेकिन इससे पहले जिस तरह इस चुनाव को लेकर राजनीतिक बयानबाजी की गई, वो काफी निंदनीय कही जा सकती है।
इस बार राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में विपक्ष के बयानवीर सारी हदें पार कर गए। 21 जुलाई यानी गुरुवार को देश के नए राष्ट्रपति की घोषणा होनी है। भारतीय जनता पार्टी नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू की संख्याबल के लिहाज से जीत पक्की मानी जा रही है। वो झारखंड की पूर्व राज्यपाल हैं। विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को वोट देने वाले बयानवीर नेताओं की टिप्पणियों से देश आहत है। इस चुनाव में विपक्ष की खूब जगहंसाई हुई है। अंतरात्मा की आवाज पर विपक्ष के तमाम मतदाताओं ने द्रौपदी मुर्मू की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा को देखते हुए अपना बेशकीमती मत देने का फैसला किया। बयानवीरों की इस शृंखला में बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव भी शामिल हो गए हैं। इसलिए उनके बयान का जिक्र करना जरूरी है।
तेजस्वी यादव ने द्रौपदी मुर्मू को लेकर कहा- “राष्ट्रपति भवन में कोई मूर्ति नहीं चाहिए। लोगों ने यशवंत सिन्हा को बोलते हुए कई बार सुना होगा। लेकिन क्या किसी ने द्रौपदी मुर्मू को कभी सुना है? जब से वह राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बनी हैं, उन्होंने कोई प्रेस वार्ता नहीं की है।” वास्तव में तेजस्वी का यह विवादित बयान उनकी कुंठित विचारधारा को प्रदर्शित करता है। उन्होंने इस बयान से न सिर्फ अपनी छुद्र मानसिकता का परिचय दिया है, बल्कि एक नेता के तौर पर, देश की भावी राष्ट्रपति का अपमान भी किया है। उनकी यह गलती अनैतिक और अक्षम्य है। हमारे यहां राष्ट्रपति को देश का प्रथम नागरिक माना जाता है। उनके पास कार्यपालिका की पूरी शक्ति होती है। वे तीनों सेनाओं के प्रमुख होते हैं और उनके कंधों पर संविधान के संरक्षण की जिम्मेदारी होती है। ऐसे में तेजस्वी और उनकी हां में हां मिलाने वाले तमाम बुद्धिजीवी बताएं कि क्या देश को कोई विवेकवान राष्ट्रपति चाहिए या कोई भाषणबाजी करने वाला शख्स?
राष्ट्रपति का पद, किसी मुख्यमंत्री के पद जैसा नहीं होता है, जहां किसी भी अशिक्षित महिला को राज्य के सर्वोच्च पद पर स्थापित कर दिया जाए। ओड़िशा के बेहद की पिछड़े गांव बेदपोसी में जन्मीं द्रौपदी मुर्मू संथाल आदिवासी समूह से वास्ता रखती हैं। उनका बचपन काफी मुफलिसी में गुजरा, लेकिन आज उन्होंने अपनी दृढ़-इच्छाशक्ति और संकल्प से जो मुकाम हासिल किया है, वह देश के करोड़ों लोगों के लिए एक प्रेरणास्त्रोत है। ऐसा नहीं है कि द्रौपदी मुर्मू को राजनीति की दुनिया में कोई पद या ओहदा, तेजस्वी की तरह खैरात में मिला है। बल्कि इसे उन्होंने अपनी मेहनत और काबीलियत से हासिल किया है। द्रौपदी मुर्मू ने अपने पेशेवर जीवन की शुरुआत एक शिक्षक के रूप में की है। इसके बाद उन्होंने सिंचाई और बिजली विभाग में जूनियर असिस्टेंट के रूप में भी काम किया। फिर, 1990 के दशक में उन्होंने राजनीति के दुनिया में कदम रखा और राइरांगपुर जिले की पार्षद चुनी गईं।
इसके बाद वह जिला परिषद की उपाध्यक्ष बनीं और साल 2000 में उन्होंने विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया और उन्हें इसमें सफलता भी मिली। इसके बाद उन्होंने ओड़िशा सरकार में मत्स्य एवं पशुपालन विभाग के राज्यमंत्री के रूप में भी कार्य किया और जल्द ही उन्हें भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया।
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उन्होंने 2015 से लेकर 2021 तक झारखंड के राज्यपाल के तौर पर अपनी सेवाएं दीं। इस दौरान जिस तरह से उन्होंने अपने दायित्वों का निर्वहन किया, वह जगजाहिर की। देश की एक आदिवासी महिला ने जीवन की तमाम कठिनाइयों और मुसीबतों के बाद भी, जिस सफर को तय किया है, वह वास्तव में एक उदाहरण है। ऐसे में विपक्षी दलों ने उनके अंतर्मुखी स्वभाव की आलोचना कर अपने आदिवासी और महिला विरोधी मानसिकता का भी परिचय दिया है। तेजस्वी यादव के लिए उचित समय है कि वे कुछ भी बयान देने से पहले थोड़ा सोच-विचार कर लिया करें। लोगों का मान-मर्दन करने के बजाय उन्हें सम्मान देना सीखें। साथ ही वह यह भी समझने की कोशिश करें कि आखिर जिस उम्मीदवार को विपक्षी नेता भी अपना वोट देने के लिए तैयार हैं, उनमें कोई तो असाधारण बात जरूर होगी। फिर, सामाजिक न्याय का श्रेष्ठ पुरोधा और जनहितैषी होने के दावा करें। भारतीय राजनीति का आने वाला भविष्य ऊर्जावान युवाओं के हाथों में ही है।
डॉ. विपिन कुमार
(लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं)