क्रांतिवीर गणेश दामोदर अर्थात बाबाराव सावरकर वह प्रतिभा थे जिनकी छत्रछाया में पलकर स्वातंत्र्यवीर का बचपन निखरा। उनकी शिक्षा से डॉ.नारायण सावरकर जैसा राष्ट्राभिमानी क्रांतिकारी राष्ट्र को प्राप्त हुआ। जिनके योगदान माध्यम बने और भारतीय क्रांतिकारियों को वह बौद्धिक संपदाएं प्राप्त हुईं, जिनसे असंख्य क्रांति ज्योति भारतीय स्वातंत्र्य समर को प्राप्त हुए। बाबाराव ने राष्ट्र स्वातंत्र्य के लिए यातनाएं सहीं और कारावास भोगे। इसमें कालापानी की अत्यंत वेदनादायी कारावास का भी समावेश है। उनके योगदान को शब्दों में पिरोना अत्यंत कठिन है, इसलिए यही कहा जा सकता है कि, बाबाराव सावरकर भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन के प्रखर क्रांतिवीर, समस्त राष्ट्राभिमानियों के नेतृत्व और त्याग पुरुष थे।
युवा चेतना के लिए मित्र मेला का गठन
स्वातंत्र्यवीर सावरकर को जो जनसमर्थन समाज से मिला उसकी पहली कड़ी उनका परिवार ही था। बाबाराव सावरकर जैसे पितृतुल्य भाई सदा कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे। अंग्रेजों से लड़ने के लिए जब मित्रमेला का गठन हुआ तो उसके माध्यम से रामदास स्वामी, छत्रपति शिवाजी महाराज और नाना फडणवीस जैसे पूज्य महापुरुषों की जयंती मनाई जाने लगी, इसके अंतर्गत किशोर वयीन और नवयुवकों को एकत्र किया जाने लगा। उनमें राष्ट्र स्वातंत्र्य के लिए चेतना की ज्योति प्रदीप्त की जाने लगी। इसमें पंद्रह वर्ष के वीर विनायक दामोदर सावरकर की जितनी भूमिका थी, उससे कहीं कम बाबाराव की भी नहीं थी। जिस काल में परिजन अंग्रेजों के दमनचक्र से घबराकर अपने युवाओं को राष्ट्र स्वातंत्र्य के लिए नहीं निकलने देते थे, उस काल में बाबाराव सावरकर अपने कनिष्ठ बंधु वीर विनायक के साथ खड़े रहे।
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अंग्रेजों से आमना सामना और ‘वंदे मातरम्’ अभियोग
27 सितंबर, 1906 को दशहरे के दिन अंग्रजों की सत्ता का विरोध करनेवाले युवकों ने नासिक के कालिका मंदिर के पास ‘वंदेमातरम्’ का जय घोष प्रारंभ कर दिया। इसे शांत कराने के लिए पुलिस ने डाट डपट प्रारंभ कर दी। युवकों की टोली का नेतृत्व स्वयं बाबाराव सावरकर कर रहे थे। इसके कारण पुलिस ने बाबाराव सावरकर पर बल प्रयोग का प्रयत्न किया। इससे आक्रोषित बाबाराव और युवाओं के दल ने पुलिस अधिकारियों को उसी भाषा में उत्तर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि, बाबाराव सावरकर समेत 11 युवकों पर अभियोग पंजीकृत हो गया। इस अभियोग का नाम ‘वंदे मातरम्’ अभियोग पड़ गया। इस प्रकरण में बाबाराव प्रमुख आरोपी थे। इन सभी लोगों पर विभिन्न न्यायालयों (चल न्यायालय) में अभियोग चला। बाबाराव समेत सभी पर 20 रुपए के समतुल्य जमानत मांगी गई। उस काल में बाबाराव समेत सावरकर बंधुओं ने कई आंदोलन प्रारंभ किये, जिसमें स्वदेशी आंदोलन, विदेशी माल का बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का समावेश है।
क्रांतिकारियों को बौद्धिक संपदा प्रदाता
बाबाराव सावरकर क्रांति ज्योति प्रदीप्त करने के लिए सतत कार्य करते रहे। स्वातंत्र्यवीर सावरकर के लंदन जाने के बाद भारत में स्वातंत्र्य समर को प्रखर रखने का कार्य बाबाराव करते रहे, इसमें 1906 में स्वातंत्र्यवीर सावरकर द्वारा लिखित जोसफ मेजिनी के आत्मचरित्र की प्रस्तावना का प्रकाशन और राष्ट्राभिमानी युवाओं में उसे पहुंचाने का कार्य बाबाराव सावरकर ने संभाला। 1907 में जोसेफ मेजिनी की पुस्तक का प्रकाशन बाबाराव सावरकर ने कराया। इस पुस्तक में स्वातंत्र्यवीर सावरकर लिखित 26 पृष्ठों की प्रस्तावना क्रांतिकारियों की गीता बन गई। इससे प्रेरित होकर हजारों युवकों ने स्वातंत्र्य समर में अपने आपको झोंक दिया। जेसेफ मेजिनी के आत्मचरित्र की प्रस्तावना से प्रेरित अनंत कान्हेरे ने नासिक के जिलाधिकारी जैक्सन का वध कर दिया। इसके कुछ काल पश्चात ही स्वातंत्र्यवीर सावरकर द्वारा लिखित ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक ग्रंथ भी हॉलैंड से मुद्रित होकर भारत पहुंच गया। बाबाराव ने ग्रंथों को अति गोपनीयता बरतते हुए देशभर में वितरित किया। इसका प्रभाव ही था कि, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब में गदर पक्ष की स्थापना हुई। अभिनव भारत से संलग्न युवकों को राष्ट्र कार्य समझाने और अंग्रेजों द्वारा किस कानून में उन पर कार्रवाई की जा सकती है, यह समझाने के लिए एक पुस्तक का प्रकाशन किया। इस बीच लंदन से स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने हथगोले निर्माण के स्वलिखित कागज सेनापति बापट के हाथों भेजा। बाबाराव ने इसे क्रांतिकारियों तक पहुंचाया। इससे शिक्षा लेकर ही खुदीराम बोस ने न्यायाधीश किंग्सफोर्ड की गाड़ी पर हथगोला फेंका, जो भारत में निर्मित पहला हथगोला था।
खोजा व्यापारी की अन्यायी पुलिस से रक्षा
11 जून, 1908 में शिवराम पंत परांजपे को पुणे में गिरफ्तार कर लिया गया था। उन्हें कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए बाबाराव सावरकर मुंबई पहुंच गए। उस समय बाबाराव सावरकर ने देखा कि, न्यायालय के समक्ष के एक खोजा मुस्लिम व्यापारी को पुलिस परेशान कर रही है। बाबाराव सावरकर खोजा व्यापारी की सहायता में उतर गए और पुलिस को उसी की भाषा में उत्तर दिया। इस प्रकरण को गंभीर होते देख अंग्रेज अधिकारी गायडर वहां पहुंचा। उसे जब यह ज्ञात हुआ कि, व्यापारी के सहायक बाबाराव सावरकर हैं तो, वह खुश हो गया और बाबाराव की झडती लेने का आदेश दे दिया। पुलिस को बाबाराव की जेब से रूसी क्रांति के कागज प्राप्त हुए, इसी को आधार बनाकर अंग्रेज सरकार ने बाबाराव को एक महीने के कारावास की सजा सुना दी। इस एक महीने की सजा भुगतने के लिए बाबाराव को नासिक और ठाणे कारागृह में रखा गया था।
आजीवन कारावास
वर्ष 1909 में बाबाराव सावरकर ने कवि गोविंद रचित चार कविताओं का प्रकाशन किया। इसमें ‘रणावीण स्वातंत्र्य कोणा मिळाले?’ नामक रचना के माध्यम से बताया गया था कि, विश्व में किसी भी राष्ट्र को सशस्त्र क्रांति के बिना स्वतंत्रता प्राप्ति नहीं हुई थी। इस कविता के प्रकाशन के कारण बाबाराव सावरकर को अंग्रेज पुलिस ने बंदी बना लिया। उनके विरुद्ध सुनवाई हुई और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इसके अंतर्गत 8 जून, 1909 को बाबाराव सावरकर को अंदमान कारागृह में ले जाया गया।
स्वातंत्र्य समर को मिली बाबाराव की ग्रंथ संपदा
बाबाराव सावरकर का जीवन स्वातंत्र्य समर के लिए समर्पित रहा। स्वतंत्रता आंदोलन को खड़ा करने के लिए क्रांतिकारियों की सेना खड़ी करने में बाबाराव का अभिन्न योगदान रहा है। इस सबके साथ ही बाबाराव ने क्रांति ज्योति को प्रदीप्त करने के लिए ग्रंथ संपदा का लेखन, प्रकाशन और वितरण किया। उन्होंने भाई परमानंद लिखित ‘वीर बैरागी’ नाम पुस्तक का भाषांतर किया। पुस्तक में उल्लेखित बंदा वीर के चरित्र के माध्यम से हिंदुओं में स्फूर्ति फूंकने का कार्य किया। इसके साथ ही सिख और मराठा के मध्य संबंध की डोर जोड़ने का प्रयत्न भी किया, जिससे स्वतंत्रता आंदोलन को एकता का बल मिले। यह पुस्तक औरंगजेब की इस्लामी सत्ता के विरुद्ध वीर बंदा के संघर्षों की कथा का वर्णन है। इसके साथ ही ‘राष्ट्र मीमांसा’ नामक पुस्तक के माध्यम से यह सिद्ध किया कि, भारत हिंदु राष्ट्र है। बाबाराव ने अपनी पुस्तक ‘श्री शिवरायांची आग्र्यावरील गरुडझेप’ के माध्यम से यह सत्य उद्धृत किया कि, छत्रपति शिवाजी महाराज की आगरा यात्रा का उद्देश्य औरंगजेब का वध करना था। ‘वीरा रतनमंजुषा’ के माध्यम से महारानी पुष्पवती, राजा दाहिर की कन्याओं, राणी पद्मिनी, पन्नादायी समेत विभिन्न राजपूत स्त्रियों के कार्यों का वर्णन किया है। ‘हिंदु राष्ट्र – पूर्वी, आता नि पुढे’ ‘धर्म हवा कशाला’ ‘खिस्तास परिचय अर्थात ख्रिस्त का हिंदुत्व” जैसी अनेकानेक पुस्तकें उन्होंने समाज को दीं। जिसकी लौ से प्रदीप्त हुई ज्योति ने क्रांति को प्रचंड अग्नि का रूप दिया और उसकी दाहकता में अंग्रेजों के अन्यायकारी शासन का अंत हो गया।
येशू थे तमिल ब्राम्हण
बाबाराव सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘ख्रिस्त परिचय’ के माध्यम से येशू के विषय में बहुत सारी जानकारियां प्रस्तुत की। उन्होंने लिखा कि, येशू ख्रिस्त मूलरूप से तमिल हिंदू थे और जन्म से विश्वकर्मा ब्राम्हण थे। ईसाई धर्म हिंदू धर्म का ही एक हिस्सा है। इसको लेकर बहुत बवाल उठाया गया। बाबाराव ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि, येशू ख्रिस्त का मूल नाम केशवराव कृष्ण था और येशू की भाषा तमिल थी, वे कृष्णवर्णीय थे। येशू ने योग की शिक्षा ली थी। उनका परिवार भारतीय वेशभूषा धारण करते थे। जीवन के 49 वर्ष में येशू ने अपनी देह त्यागने का निर्णय लिया और योगावस्था में समाधि ले ली। इस उल्लेख के साथ बाबाराव ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट किया है कि, ख्रिस्ती धर्म भी हिंदू धर्म का एक पंथ था।